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________________ विचित्र व्याह । मेरी बातोंसे तुम जननी, मनमें तनिक न होना रुष्ट, केवल स्त्री-धन, अशन, वसनमें, पामर नर रहते हैं तुष्ट । पर-हित में नित रत रहते हैं, जिनका उर है उच्च उदार, अपने सुखसे सुखी रहे जो, वही मनुज है भूका भार ॥ २३ ॥ कृपा कसे मा, इसी लिए मैं, ब्याह करूँगा अभी नहीं, जन्मभूमि- हित जीवन दूँगा, व्यर्थ मरूँगा कभी नहीं । नश्वर है यह देह खेहकी, अजर अमर है पर उपकार, जैसे तैसे प्राणप्रणसे, क्यों न करूँ फिर देशोद्धार ॥ २४ ॥ कहा सुशीलाने फिर सुतसे, बेटा, तूने ठीक कहा, पर ऐसा करने से मेरे, मनमें होगा दुःख महा । इसी लिए तुम मेरा कहना मानो, आना कानी छोड़, कभी लड़कपनके वश होकर, मुझसे करो न नातातोड़ ॥ २५ ॥ किस कठिनाई से सुत, तुमको, पोसा पाला है मैंने, क्या न तुम्हारे लिए जगत में, सहा कसाला है मैंनें । मेरी बात मौन हो मानो, उससे करो नहीं इन्कार, मातृ-भक्ति सबसे बढ़कर है, रख लो मेरा प्यार दुलार ॥ २६ ॥ जिसने माता और पिताका, कहना माना नहीं कभी, उसने धर्मयुक्त हो जगमें, रहना जाना नहीं कभी । निज करनीसे मेरे मनको, साहस करके मत तोड़ो, अविनयमय हो, तनय, नहीं तुम, मुझे बुढ़ापे में छोड़ो ॥ २७ ॥ यदि मा मुझको मान रहे हो, तो तुम मानो मेरी बात, ब्याह करो मेरे कहनेसे, वाद करो मत, मेरे तात । जो करती हूँ प्रेम दृष्टिसे, उसको तुम देखो चुपचाप, यदि बोलोगे तो जीवन भर, मुझको होवेगा सन्ताप ॥ २८ ॥ कुछ नहीं हरिसेवकने कहा, वह नितान्त मिरुत्तर हो रहा । पग गई जननी अति मोदमें, तनयको भरके निज गोदमं ॥ २९ ॥ [ असमाप्त । ] अङ्क १२ ] ५५३
SR No.522838
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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