SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अङ्क १२] . लोकविभाग और त्रिलोकप्रज्ञप्ति । ५२५ विध्वंस किया। यह राजा बड़ा दुष्ट था, इसने द्वीपसमुद्र, काल, तिर्यग्लोक, भवनवासिलाक, जैनियों के निर्यन्थ साधुओंको बहुत ही सताया। गति, मध्यलोक, व्यन्तरलोक, स्वर्ग और मोक्ष शिलालेखोंसे मालूम होता है कि गुप्तोंके राज्यका विभाग नामके ११ अधिकार या अध्याय हैं । लंय करनेवाला मिहिरकुल नामक बलाढ्य राजा- संक्षेपमें यह त्रैलोक्यसारके ढंगका ग्रन्थ है। हो गया है । इस मिहिरकुल राजाका सविस्तर इसका मंगलाचरण यह है:वर्णन हुएनसंग नामक प्रख्यात चीनी यात्रीने अपने लोकालोकविभागज्ञान् भक्त्या स्तुत्वा जिनेश्वरान् । प्रवासवर्णनमें दिया है। इसके सिवाय, इस राजा. व्याख्यास्यामि समासेन लोकतत्त्वमनेकधा ॥ १॥ की दृष्ट कृतिके विषयमें राजतरंगिणी नामक अन्तिम प्रशस्तिके श्लोक ये हैं:संस्कृत ग्रन्थमें भी विशेष वृत्तान्त आया है । यह भवे (व्ये) भ्यः सरमानुषोरुसदसि श्रीवर्द्धमानार्हता दुष्ट राजा गुप्तोंके बाद उनका राज्य आंधकृत यत्प्रोक्तं जगतो विधानमखिलं ज्ञातं सुधर्मादिभिः । करके चालीस वर्ष राज्य करता रहा और ७० आचार्यावलिकागतं विरचितं तरिसहसरर्षिणा वर्षकी अवस्थामें मरा । यह स्पष्ट है कि, इसीका भाषायाः परिवर्तनेन निपुणः सम्मानिता (तं) नाम चतुर्मुख कल्कि था । साधुभिः॥ वैश्वे स्थिते रविसुते वृषभे च जीवे, लोकविभाग और त्रिलोक- राजोत्तरेषु सितपक्षमुपेत्य चन्द्रे । .। प्रज्ञप्ति । प्रामे च पाटलि ( क ) नामनि पाणराष्ट्र, - शास्त्रं पुरा लिखितवान मुनिसर्वनन्दिः ॥ २ ॥ [ दो प्राचीन ग्रन्थ।] संवत्सरे तु द्वाविंशे कांचीशसिंहवर्मणः। अशीत्यग्रे शकाब्दानां सिद्धमेतच्छतत्रये ॥ ३ ॥ लोकविभाग नामक ग्रन्थके विषय में हम बहत पादासतानि षटिंठात्यधिकानि वै। दिनोंसे सुन रहे थे कि यह बहुत प्राचीन ग्रन्थ शास्त्रस्य संग्रहस्त्विदं छन्दसानुष्टुभेन च ॥ ४ ॥ है । श्रीयुत विन्सेंट ए. स्मिथने अपने सुप्रसिद्ध इति लोकविभागे मोक्षविभागो नाम एकादश इतिहास ( अर्ली हिस्ट्री आफ इंडिया) के प्रकरणं समाप्त । पृष्ठ ४७१ में इसका उल्लेख किया है और इसे ' प्रशस्तिके उक्त श्लोकोंका अर्थ इस प्रकार शककी चौथी शताब्दिका बतलाया है । होता हैखोज करने पर हमें इसकी एक प्रति स्वर्गीय “ देवों और मनुष्योंकी सभामें भगवान् विद्याप्रेमी सेठ माणिकचन्दजीके सरस्वतीभण्डारसे वर्द्धमान् अरहंतने भव्य जनोंके लिए जो जगत्का प्राप्त हो गई। इसकी श्लोकसंख्या २२३० और सारा स्वरूप कहा था और जिसे सुधर्मा स्वामी पत्रसंख्या ७१ है । भट्टारक भुवनकीर्तिके आदि गणधरोंने जाना था, वह आचार्योंकी शिष्य ज्ञानभूषण भट्टारकके उपदेशसे 'नागद्रा परम्पराद्वारा चला आया और उसे सिंहसूरिने साहवाघ्र' नामके किसी लेखकने इसे लिखा है। भाषाका परिवर्तन करके रचा । निपुण साधुओंने अतएव यह विक्रमकी सोलहवीं शताब्दिकी इसका सम्मान किया ॥ १ ॥ लिखी हुई है। ज्ञानभूषण इसी शताब्दिमें हुए हैं। " जिस समय उत्तराषाढ़ नक्षत्र में शनिश्चर, - अन्धकी भाषा संस्कृत और छन्द अनुष्टुप् वृषराशिमें बृहस्पति और उत्तरा फाल्गुनीमें चन्द्रहै । इसमें जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, मानुषक्षेत्र, मा था, तथा शुक्लपक्ष था ( अर्थात् फाल्गुन
SR No.522838
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy