SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनहितैषी [ भाग १३ शुक्ला पूर्णिमा थी ) उस समय पण्णराष्ट्रके तब हमारी उक्त प्रसन्नता हवा हो गई । क्योंकि पाटलि ( पटना ! ) ग्राममें इस शास्त्रको पहले त्रैलोक्यसार विक्रमकी ११ वीं शताब्दिका बना सर्वनन्दि नामक मुनिने लिखा ॥ २॥ हुआ ग्रन्थ है, और यह सुनिश्चित है। क्योंकि कांचीके राजा सिंहवर्माके २२ संवत्सरमें त्रैलोक्यसारकी संस्कृतटीकामें पं० माधवचन्द्र और शकके ३८० वें वर्षमें यह ग्रन्थ समाप्त विद्यदेव-जो त्रैलोक्यसारके कर्ता नेमिचन्द्रके हुआ ॥ ३॥ शिष्य थे-स्पष्ट शब्दोंमें लिखते हैं कि यह ग्रन्थ ___“यह शास्त्रका संग्रह १५२६ अनुष्टुप मंत्रिवर चामुण्डरायके प्रतिबोधके लिए बनाया छन्दोंमें समाप्त हुआ है।" गया है और चामुण्डरायके बनाये हुए त्रिषष्टिलक्षण महापुराणमें उसके बननेका समय शक संवत् प्रशस्तिके इन श्लोकोंको पढ़कर हमें इस ग्रन्थकी प्राचीनताके विषयमें बड़ा कुतूहल हुआ । क्यों ९०० ( बि० सं० १०३५ ) लिखा हुआ है । कनड़ीके और भी कई ग्रन्थोंसे चामुण्डराय कि शक संवत्का इससे पुराना उल्लेख अबतक कहीं भी नहीं मिला है । यद्यपि ग्रन्थकी प्राची और नेमिचन्द्रका समय यही निश्चित होता है । नताके विषयमें सन्देह करनेका कोई कारण नहीं लोकविभागमें त्रैलोक्यसारकी गाथा देते था, फिर भी हमें ग्रन्थको एक बार अच्छी समय स्पष्ट शब्दोंमें 'उक्तं च त्रैलोक्यसारे ' इस तरह देख जानेकी आवश्यकता मालम हई। प्रकार लिखा है । इस कारण यह सन्देह भी हमने देखा कि, इसमें ग्रन्थान्तरोंसे भी कुछ नहीं हो सकता कि, वे गाथायें किसी अन्य प्राश्लोक उद्धृत किये गये हैं। सबसे पहले हमारी चीन ग्रन्थकी होंगी और उससे लोकविभागके दृष्टि त्रिलोकप्रज्ञप्ति पर पड़ी । इस ग्रन्थकी समान त्रैलोक्यसारमें भी ले ली गई होंगी, क्योंकि पचासों गाथायें लोकविभागमें उद्धत हैं। हम त्रैलोक्यसार संग्रहग्रन्थ है । अतः सिद्ध हुआ कि अकलंकसरस्वतीभवन काशीके मंत्री पं० उम- लोकविभाग त्रैलोक्यसारसे पीछेका, ग्यारहवीं रावसिंहजीके और पं० इन्द्रलालजी साहित्य- शताब्दिके बादका, ग्रन्थ है। . शास्त्रीके बहुत ही कृतज्ञ हैं, कि हमारे लिखनेसे लोकविभागमें त्रैलोक्यसारकी जो गाथायें उक्त महाशयोंने त्रैलोक्यप्रज्ञप्तिकी दो हस्त उद्धृत की गई हैं, उनमेंसे दो ये हैं:लिखित प्रतियाँ हमारे पास तत्काल ही भेज दीं। वेलंधरभुजगविमाणाण सहस्साणि बाहिरे सिहरे । जब लोकविभागकी 'उक्तं च ' गाथायें त्रिलोक- अंते वावत्तरि अडवांसं वादालयं लवणे ॥ प्रज्ञप्तिमें मिल गई, तब हमें इस बातसे और भी दुतडादो सत्तसयं दुकोसअहियं च होइ सिहरादो। अधिक प्रसन्नता हुई कि त्रिलोकप्रज्ञप्ति लोक- णयराणिहु गयणतले जोयण दसगुणसहस्स वासाणि । विभागसे भी पुराना ग्रन्थ है। ये त्रैलोक्यसारकी ८९८-९९ नम्बरकी परन्तु इसके बाद ही मालूम हुआ कि लोक- गाथायें हैं और लोकविभागमें ४२२ वें नम्बरके विभागमें त्रैलोक्यसारकी भी गाथायें मौजूद हैं, श्लोकके बाद उद्धृत की गई हैं। इसी प्रका१त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें पाण, शवर, पुलिंद आदिको रकी और भी चार पाँच गाथायें हैं । नीच जातियोंके भेदोमें गिनाया है। क्या पाणराष्ट त्रैलोक्यसंग्रह नामके एक और ग्रन्थकी भी. इन्हीं नीचोंमेंकी किसी जातिके राज्यको कहा होगा? कुछ गाथायें लोकविभागमें उद्धृत की गई हैं, . २ पाटलिपुत्र पटनाका पुराना नाम है। परन्तु यह ग्रन्थ हमें कहींसे प्राप्त नहीं हो सका।
SR No.522838
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy