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________________ अङ्क १२] जैनधर्मका भूगोल और खगोल। ५५७ कराँची आदि नगरोंके बीचमें भी इसी प्रकारका भी आर्यभट्टके इस पृथ्वीभ्रमण सिद्धान्तका फर्क है)। अब बतलाइए. कि इस विलम्बका उल्लेख मिलता है । यथास्या कारण है ? जैनग्रंथोंके देखनेसे तो मालूम "भगोल: केषाचिन्मतेन नित्यं चलनेवास्ते, आदिहोता है कि सूर्यकी कमसे कम गति एक मुहूतेम. त्यस्तु व्यवस्थित एव । तत्रादित्यमण्डलं दूरत्वाचे (४८ मिनिटमें ) लगभग ५२५१ योजनकी पूर्वतः पश्यन्ति तेषामादित्योदयः । आदित्यमण्डलाधोबतलाई गई है । (देखो, तत्त्वार्थराजवार्तिक, व्यवस्थिताना मध्याह्नः। ये तु दूरातिकान्तत्वान्न पश्यन्ति पृष्ठ १५७ ।) इस हिसाबसे सूर्यका प्रकाश तेषामस्तमित इति ।" एक मुहूर्तमें सब ही भूखण्डोंमें व्याप्त हो जाना - पृथ्वीका गोलाकार होना तो प्रायः सभी चाहिए, पर हम देखते हैं कि मदरास और प्रसिद्ध विद्वानोंने स्वीकृत किया है और चपटी बम्बईके बीचके केवल पाव योजनके ही लग- माननेवालोंका अनेक युक्तियों द्वारा खण्डन भग अन्तरमें उसे फैलते ३९ मिनट लग जाते किया है। लल्लसिद्धान्तमें लिखा है कि- - हैं ! बिना पृथ्वीके गोल और गतिमती माने, समता यदि विद्यते भुवस्तरवस्तालनिभा बहूच्छ्रयाः । संसारका कोई भी भौगोलिक इसका उत्तर नहीं . कथमेव न दृष्टिगोचरं नुरहो यान्ति सुदूरसंस्थिताः ॥ दे सकता। . ___ भास्कराचार्यने भी यही सिद्धान्त प्रतिपादित - हिन्दओंके पराणग्रंथोंमें भी भूगोल-खगो- किया है । पाठक प्रश्न कर सकते हैं कि जब लका वर्णन उसी ढंगसे लिखा है जैसा जैनग्रंथोंमें हिन्दओंके प्रसिद्ध ज्योतिर्विदोंने पृथ्वीको गेंदकी है, परंतु ज्योतिषशास्त्रके प्रतिष्ठित ग्रंथोंमें, तरह गोल माना है, तो फिर हिन्दू पुराणकारोंने जिनमें आर्यप्रजाकी अलौकिक बुद्धिका जाज्व- और उनकी ही तरह जैनग्रन्थकारोंने उसे ल्यमान प्रकाश प्रदीप्त है, ठीक वैसा ही कथन : । कुम्भकारके चक्रकी तरह चिपटी क्यों माना मिलता है जैसा आधुनिक पाश्चात्य भौगोलि- है ? इसके समाधानमें बहुतसे विद्वान् कहते हैं कोंने प्रयोगों द्वारा निश्चित किया है । यद्यपि कि साधारण दृष्टिसे देखने पर पृथ्वी हमको श्रीपति, लल्ल और भास्कराचार्य आदि पिछले : ल सर्वत्र सम ( चपटी ) ही दिखाई देती हैसमर्थ ज्योतिषियोंने पृथ्वीका भ्रमण स्वीकार गोलाकार नहीं प्रतीत होती । इसी कारण नहीं किया है, तो भी आर्यभट्ट नामके सुप्रसिद्ध । ६ पुराणकारोंने, जिनका उद्देश्य केवल कल्पित विद्वानने आजसे १५०० वर्ष पहले ही इस बातों द्वारा सामान्य जनताको यत्किञ्चित् ज्ञान सिद्धान्तका प्रतिपादन कर दिया था । सर करा -- करानेका था, लोगोंकी समझमें आने योग्य रमेशचन्द्र दत्त अपने सुप्रसिद्ध भारतीय इति- मी माटा वर्णन लिखा है। पर ज्योतिषियोंका हासमें लिखते हैं-" आर्यभट्ट कहता है कि, सस उद्देश्य कुछ और ही था; उन्हें भूगोल जिस प्रकार किसी नौकामें बैठा हुआ मनुष्य और खगोलके रहस्योंका पता लगाना था, आगे बढ़ता हुआ स्थिर वस्तुओंको पीछेकी गणितके सिद्धान्तों द्वारा सृष्टिकी मुख्य मुख्य मिटा ओर चलती हुई देखता है, उसी प्रकार तार घटनाओंका कार्यकारणभाव जानना था, इस लिए भी यद्यपि वे अचल हैं तथापि नित्य चलते उन्हें पृथ्वी और उसके ग्रहों-उपग्रहोंका खूब हुए दिखाई पड़ते हैं।” तीक्ष्ण दृष्टिसे निरीक्षण करके अपने विचार श्वेताम्बरसम्प्रदायके आचाराङ्गसत्रकी टीकामें निश्चित करने पड़े थे। अब रही जैनग्रन्थकारों
SR No.522838
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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