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जैनहितैषी -
विविध विदेशोंके रक्षक थे, शिक्षक भी सबके थे हम,
दुखी दीन या पराधीन भी, कहिए तो कबके थे हम ? ॥ ४ ॥ सब कहते हैं हाथ उठाकर, अपने प्रिय स्वराज्यके हेतु
जो कुछ हो पर नहीं हटेंगे, नभमें भी बाँधेंगे सेतु । कभी प्रकृतिकी धारा चलकर, बीच मार्गमें रुकी नहीं,
कभी आगकी लपट प्रकट हो, नीचे मुखका झुकी नहीं ॥ ५ ॥ दृढ़ आशा है बहुत शीघ्र ही, हम सबकी पूजेगी चाह,
पा स्वराज्यको भारत-मनकी, तुरंत दूर होवेगी दाह । काली घटा उठी विघ्नोंकी, तितर बितर हो जावेगी,
देश-विनाशक अज्ञोंकी भी, विकृति बुद्धि खो जावेगी ॥ ६ ॥ न्याय तुला पर तुल जावेगा, भारत भी सन्देह नहीं,
किसी भाँति निःसीम निरन्तर रहती है अन्धेर कहीं ? | जलमें अनल, उपल पर कैरव, कालचक्र उपजाता है,
अचला चलती है, मारुतका चलना भी रुक जाता है ॥ ७ ॥ यदि स्वराज्यका रिपु स्वराज्य ही, हो जावे परवाह नहीं, जो चाहे सो मोह नींदमें, सो जावे परवाह नहीं । ग्रीष्म दिवाकर उदित हुआ है, तारे नहीं रहे तो क्या ?
सिंह- समूह बना है यदि, मृग सारे नहीं रहे तो क्या ? ॥ ८ ॥ अपनी वस्तु चाहते हम हैं कौन टोकनेवाला है ?
जैसे होगा उसको लेंगे, कौन रोकनेवाला है ? | भिक्षा नहीं माँगते हम हैं जा कर कभी किसीके पास,
न्याय चाहते हैं हम दृढ़ हो, हो सकते हैं नहीं हताश ॥ ९ ॥ हम भी मानव हैं मानवता हममें भी है भरी हुई,
इसी लिए ही चाह हमारी अभी नहीं है मरी हुई, क्यों स्वराज्य या राज्य प्राप्त कर, सभी मनुज आनन्द करें ?
विफलमनोरथ हो हम ही क्यों, जलती जलती आह भरें ? ॥१०॥ क्यों अनीतिको करें कभी हम अन्यायी क्यों कहलावें ? धर्म-नीति के लिए भले ही सुख पावें या मर जावें । क्यों स्वराज्य हमको न मिलेगा, क्यों न सत्य विजयी होगा ? स्वाधीना देवीका जगमें कौन नहीं प्रणयी होगा ? ॥ ११ ॥ स्वावलम्बके रंग-मच पर ताण्डवनृत्य दिखावेंगे,
हम भारतको स्वर्ग बनाना सीखेंगे सिखलायेंगे । फिर स्वराज्य तो स्वयं हमारे चरणों पर गिर जावेगा,
सत्साहस कर कौन जगतमें अपनी वस्तु न पावेगा ? ॥ १२ ॥ जननी जन्मभूमिमें किसको प्रेम नहीं है अपरम्पार ?
कर्मवीरके लिए कौनसा कर्म हुआ है अगम अपार ? सोते थे पर जग बैठे हम अब फिर कभी न सोचेंगे,
[ भाग १३
चाहे कुछ हो, निज स्वत्वोंको जीते कभी न खोवेंगे ॥ १३ ॥