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________________ अङ्क १२ ] जीके द्वारा सन १९१४ में, होना लिखा है जो ठीक नहीं; उसका संपादन पं० खूबचंदजीने सन् १९१६ में किया है । इन सब बातोंके सिवाय शुद्धिपत्र में पृष्ठ XLV का जो संशोधन दिया है उसके द्वारा शुद्ध पाठको उलटा अशुद्ध बनाया गया है। क्योंकि द्रव्य - संग्रह के द्वितीय भाग में पुण्य पापकी जगह जीव, अजीवका कथन नहीं है । इतना होने पर भी संपूर्ण ग्रन्थ अपेक्षाकृत बहुत शुद्ध और साफ़ छपा है, यह कहने में कोई संकोच नहीं हो संकता । द्रव्यसंग्रह | ५४५ लिखा है । परंतु बिना किसी प्रमाणके ऐसा लिखना ठीक नहीं । कुंदकुंदका अस्तित्व सिद्धसेनादिकसे पहले माना जाता है । २ ग्रंथके उपोदघातमें दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार चार अनुयोगोंके नाम क्रमशः चरणानुयोग, गणितानुयोग, धर्मकथानुयोग और द्रव्यानुयोग दिये हैं और लिखा है कि “चरणानुयोगको प्रथमानुयोग भी कहते हैं, क्योंकि वह अनुयोगों की सूची में सबसे पहले आता है । " परन्तु यह लिखना बिलकुल प्रमाणरहित है । चरणानुयोगको प्रथमानुयोग नहीं कहते और न दिगम्बर संप्रदाय में उपर्युक्त क्रमसे चार अनुयोग माने ही गये हैं । रत्नकरंड श्रावकाचारादि ग्रंथोंसे प्रथमानुयोग और चरणानुयोगका स्पष्ट भेद पाया जाता है । उनमें प्रथमानुयोगसे अभिप्राय धर्मकथानुयोगसे है और चरणानुयोगको तीसरे नम्बर पर रक्खा है। इसी उपोद्घातमें ' चंद्र प्रज्ञप्ति ' को द्वादशांग में से एक अंग सूचित किया है, जो अंग न होकर एक ग्रंथका नाम है, अथवा वाद नामके अंगका एक अंश विशेष है । ४ प्रस्तावना, नेमिचंद्राचार्य के ‘त्रिलोसार' का परिचय देते हुए, लिखा है कि 22 इस ग्रंथ में पृथ्वी के घूमनेसे दिन और रात कैसे होते हैं, इस बातका कथन किया गया हैं ": "Aud there is a mention how night and day are caused by the motion of the earth." परंतु त्रिलोकसार में पृथ्वी के घूमने आदिका कोई कथन नहीं है । उसमें सूर्यादिककी गतिसे दिन और रातका होना बतलाया है। अतः इस लिखनेको लेखक महाशयकी निरी कल्पना अथवा पश्चिमी संस्कारों का फल कहना चाहिए । ५ चामुंडरायने गोम्मटसार पर जो अपने कर्णाटकदेशकी भाषा में टीका लिखी थी उसका नाम, इस ग्रंथकी प्रस्तावना में, 'वीरमार्तंडी ' बतलाया कया । साथ ही यह भी लिखा है कि "" चामुंडरायकी उपाधियोंमेंसे एक उपाधि 'वीरमार्तंड' होनेसे उसने अपनी उस टीकाका नाम वीरमार्तडी ' रक्खा है, जिसका अर्थ है वीर मार्तंडके द्वारा रची हुई । " परंतु इसके कोई खास प्रमाण नहीं दिया गया । गोम्मटसारके कर्मकांडकी जिस अन्तिम गाथा ( नं० ९ ९७२) परसे यह सारी कल्पना की गई हैं उससे इसका भले प्रकार समर्थन नहीं होता । उसके ' सो राओ चिरकालं णामेण य वीर मत्तंडी ' इस वाक्यमें 'वीरमार्तडी ' चामुंड रायका विशेषण है, जिसका अर्थ होता है 'वीरमार्तंड ' नामकी उपाधिका धारक । श्रीयुत पण्डित मनोहरलालजीने भी अपनी टीका में, जिसे उन्होंने संस्कृतादि टीकाओं के आधार ८ ३ उपोद्घात में एक स्थान पर श्रीकुंदकुंदाचार्य के प्रवचनसारादि ग्रंथोंको उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र और सिद्धसेन के. सम्मतिप्रकरणसे बनाया है, ऐसा ही अर्थ सूचित किया है। पछि के बने हुए ग्रंथ ( Later works ) ६ इस ग्रंथ के सम्पादक शरचंद्रजी
SR No.522838
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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