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________________ जैनहितैषी [भाग १३ घोशालने अपने एक पत्र में जो सन् १९१६ के तया घटित होते हों। परन्तु ईस्वी सन् ९८० जैनहितैषीके छठे अंकमें मदित हआ है, चाम- शक संवत् ९०२ के बराबर है। ज्योतिषडराय और नेमिचंद्रका समय ईसाकी. ११ वी शास्त्रानुसार शक संवत्में १२ जोड़कर ६० का शताब्दि प्रगट किया था, और गोम्मटेश्वरकी भाग देनेसे जो शेष रहता है उससे प्रभव-विभमर्तिके प्रतिष्ठित होनेका समय ईस्वी सनु वादि संवतोंका क्रमशः नाम मालूम क्रिया १०७४ बतलाया था। इसके प्रत्युत्तरमें हमने-जाता है। यथाःकुछ प्रमाणोंके साथ उक्त समयको इसाकी "शकेन्द्रकालोऽयुतः कृत्वा शून्यरसैः हृतः ।। १० वीं शताब्दि सूचित करते हुए प्रोफेसर शेषाः संवत्सरा ज्ञेयाः प्रभवाद्या बुधैः क्रमात् ॥" साहबसे यह निवेदन किया था कि वे उस पर ... फिरसे विचार करें । यद्यपि प्रोफ़ेसर साहबने इस हिसाबसे, शक संवत् ९०२ में १२ इस हिसाबस, उक्त लेखका कोई उत्तर नहीं दिया, परन्तु - जोड़कर ६० का भाग देनेसे अवशेष १४ रहते इस ग्रंथकी प्रस्तावनासे मालूम होता है कि ह आर १४ वा सवत् विक्रम' है, जिससे शक उन्होंने उस पर विचार जरूर किया है । और संवत् ९०२ का नाम 'विक्रम '.. होता है, इसी लिए उन्होंने अपने पूर्वविचारको बदल कर 'विभव ' नहीं । ‘विभव ' संवत् दूसरे नम्बरहमारी उस सचनाके अनुसार चामंडरायका पर है जैसा कि, ज्योतिषशास्त्रों में कहे हुए, समय वही इसाकी १० वीं शताब्दि, इस प्रभवा विभवः शुक्लः' इत्यादि संवतोंके नाम. प्रस्तावनामें, स्थिर किया है ! साथ ही इतना सूचक पद्योंसे पाया जाता है । ऐसी हालतमें, विशेष और लिखा है कि गोम्मटेश्वरकी मूर्ति, जब ईस्वी सन् ९८० में — विभव' संवत्सर ही ईस्वी सन् ९८० में, २ री अप्रैलको प्रति- नहीं बनता, तब गणित करके अन्य योगोंके ष्ठित हुई है । आपके लेखानुसार इस तारीख जाँच करने की जरूरत नहीं है । और इस लिए ( २ अप्रैल ९८० ) में ज्योतिषशास्त्रानुसार वे जबतक ज्योतिषशास्त्रके वे. खास नियम प्रकट सब योग पूरी तौरसे घटित होते हैं जो 'बाहुबलि- न किये जायँ जिनके आधार पर शक सं० चरित्रके 'कल्क्यब् षट्शताख्ये...' इत्यादि ९०२ का नाम 'विभव' बन सके तथा अन्य पद्यमें वर्णित हैं । अर्थात् दूसरी अप्रैल सन् योग भी घटित हो सकें, तब तक मिस्टर ले९८० को विभव' संवत्सर, । चैत्र शुक्र विस राइस आदि विद्वानों के कथनानसार यही पंचशी' तिथि, रविवारका दिन, सौभाग्य योग मानना ठीक होगा कि गोमटेश्वरकी मूर्ति ईस्वी और मृगशिरा नक्षत्र था। उसी दिन कुंभ लग्न- सन् ९७८ और ९८४ के मध्यवर्ती किसी समयमें में यह प्रतिष्ठा हुई है। रही कल्कि संवत् ६०२ प्रतिष्ठित हुई है। की बात, सो उसके संबंधमें आपने यह कल्पना ७ प्रस्तावनामें, ब्रह्मदेवकी संस्कृतटीकाका उपस्थित की है कि 'कल्क्यब्दे षट्शताख्ये' का . अर्थ कल्कि संवत् ६०० के स्थानमें कल्किकी . परिचय देते हुए, लिखा है कि, यह टीका द्रव्यछठी शताब्दी ' किया जाय, जिसके संग्रहके कर्ता नेमिचंद्रसे कई शताब्दी बादकी अनसार कल्कि संवत ५०८ उक्त ईवी बनी हुई है । परन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं सन् ९८० के बराबर होता है। कल्पना दिया गया । सिर्फ, विक्रमकी १७ वीं शताब्दिमें अच्छी की गई है और इसके मानने में कोई बनी हुई स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी टीकामें इस हानि नहीं, यदि अन्य प्रकारसे सब योग पूर्ण- टीकाके कुछ अंश उदधृत किये गये हैं, इतने
SR No.522838
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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