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________________ अङ्क १२ ] परसे ही उक्त निश्चय दृढ़ किया गया है, जो ठीक नहीं है। ऐसा करना तर्कपद्धतिसे बिलकुल गिरा हुआ है। इसके लिए कुछ विशेष अनुसंधानोंकी जरूरत है । अस्तु । ब्रह्मदेवने अपनी इस टीकाकी प्रस्तावना में लिखा है कि, "यह द्रव्यसंग्रह नेमिचंद्रसिद्धान्तिदेवके द्वारा, भाण्डागारादि अनेक नियोगों के अधिकारी सोम नामके राजश्रेष्ठिके निमित्त, आश्रमनाम नगरके मुनिसुव्रत चैत्याल - यमें रचा गया है, और वह नगर उस समय धाराधीश महाराज भोजदेव कलिकाल चक्रवर्तिसंबंधी श्रीपाल मंडलेश्वरके अधिकार में था । " साथ ही यह भी सूचित किया हैं कि “ पहले २६ गाथा प्रमाण लघु द्रव्यसंग्रहकी रचना की गई थी, पीछेसे, विशेष तत्त्वपरिज्ञानार्थ, उसे बढ़ाकर यह बृहद्रव्यसंग्रह बनाया गया है । प्रोफेसर साहबने ब्रह्मदेवके इस कथनको अस्वीकार किया है और उसके दो कारण बतलाये हैं – एक यह कि, खुद द्रव्यसंग्रहमें इस विषयका कोई उल्लेख नहीं है, तथा ग्रंथके अन्तिम पद्यमें ग्रंथका नाम ' बृहद्रव्यसंग्रह ' न देकर ' द्रव्यसंग्रह ' दिया है । और दूसरा यह कि, यदि इस कथन के अनुसार नेमिचन्द्रका अस्तित्व मालवा के राजा भोजके राजत्वकालमें माना जाय तो नेमिचंद्र का समय उस समयसे पीछे हो जाता है जो कि शिलालेखों और दूसरे प्रमाणोंके आधार पर इससे पहले सिद्ध किया जा चुका है ( अर्थात् ईसाकी १० वीं शताब्दि के स्थानमें ११ वीं शताब्दि हो जाता है ) । इन दोनों कारणों में से पहला कारण बहुत साधारण है और उससे कुछ भी साध्यकी सिद्धि नहीं हो सकती । ग्रंथकर्ता के लिए ग्रंथमें इस प्रकारका उल्लेख करना कोई जरूरी नहीं है, खासकर ऐसे ग्रंथमें जो सूत्ररूपसे लिखा गया हो । लघु और बृहत् ये संज्ञायें एक नामके दो ग्रंथोंमें परस्पर अपेक्षा होती हैं, परन्तु जब एक ग्रंथकार अपनी ५-६ द्रव्यसंग्रह | ५४७ उसी कृतिमें कुछ वृद्धि करता है तो उसे उसका नाम बदलने या उसमें बृहत् शब्द लगाने की जरूरत नहीं है। हाँ, ब्रह्मदेवकी तरह दूसरा व्यक्ति उसकी सूचना कर सकता है । रहा दूसरा कारण, वह तभी उपस्थित किया जासकता है, जब पहले यह सिद्ध हो जाय कि यह द्रव्यसंग्रह ग्रंथ उन्हीं नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका बनाया हुआ है जो गोम्मटसार ग्रंथ के कर्ता हैं । प्रोफेसर साहबने द्रव्यसंग्रहको उक्त नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की कृति मानकर ही यह दूसरा कारण उपस्थित किया है | परंतु ग्रंथभरमें इस बात के सिद्ध करने की कोई चेष्टा नहीं की गई ( जिसकी बहुत बड़ी जरूरत थी ) कि यह ग्रंथ वास्तवमें उक्त सिद्धान्तचक्रवर्तीका ही बनाया हुआ है । कोई भी ऐसा प्राचीन ग्रंथप्रमाण नहीं दिया गया, जिसमें यह ग्रंथ गोम्मटसारके कर्ता की कृतिरूपसे स्वीकृत हुआ हो, और न यह बतलाया गया कि द्रव्यसंग्रह कर्ताका समय कुछ पीछे मान लेने से कौनसी बाधा उपस्थित होती है । ऐसी हालत में ब्रह्मदेवके उक्त कथनको सहसा अप्रमाण या असत्य नहीं ठहराया जा सकता । ब्रह्मदेवका वह कथन ऐसे ढंगसे और ऐसी तफसील के साथ लिखा गया है कि, उसे पढ़ते समय यह खयाल आये बिना नहीं रहता कि या तो ब्रह्मदेवजी उस समय मैजूद थे; जब कि द्रव्यसंग्रह बनकर तयार हुआ था, अथवा उन्हें दूसरे किसी ख़ास मार्गसे इन सब बातोंका ज्ञान प्राप्त हुआ है। द्रव्यसंग्रहकी माथाओंपर से भी उसके पहले लघु और फिर बृहत् बनने की कुछ कल्पना जरूर उत्पन्न होती है । इसके सिवाय संस्कृतटीकामें अनेक स्थानों पर नेमिचंद्र का सिद्धान्ति देव नामसे उल्लेख किया गया है, सिद्धान्तचक्रवर्ती' नामसे नहीं, और गोम्मटसारके कर्ता नेमिचंद्र ' सिद्धान्तचक्रवर्ती ' कहलाते हैं । "
SR No.522838
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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