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________________ ५४८ जैनहितैषी [भाग १३ उन्होंने कर्मकांडकी एक गाथा (नंबर ३९७ ) तक प्रोफेसर साहबकी उक्त ३० पेजकी सारी में स्वयं अपनेको चक्रवर्ती प्रगट भी किया है। प्रस्तावना प्रायः व्यर्थ और असंबंधित ही रहेगी । साथ ही, एक बात और भी नोट किये जानेके क्योंकि वह बहुधा गोम्मटसारके कर्ता नेमिचंद्र योग्य है और वह यह है कि द्रव्यसंग्रहके कर्ता- और उनके शिष्य चामुंडसयको लक्ष्य करके ही ने भावास्रवके भेदोंमें 'प्रमाद ' को भी वर्णन लिखी गई है। किया है और अविरतके पाँच तथा कषायके ८ ग्रंथभरमें, यद्यपि, अनुवादकार्य आमतौरसे चार भेद ग्रहण किये हैं । परंतु गोम्मटसारके अच्छा हुआ है, परंतु कहीं कहीं उसमें भूलें भी कर्ताने 'प्रमाद ' को भावास्रवके भेदोंमें नहीं की गई हैं, जिनके कुछ नमूने इस प्रकार हैं:माना और अविरतके (दूसरे ही प्रकारके) बारह (क ) सम्यग्दर्शनादिकका अनुवाद करते तथा कषायके पच्चीस भेद स्वीकार किये हैं, ह, हुए 'सम्यक् ' शब्दका अनुवाद Right आदि - जैसा कि दोनों ग्रंथोंके निम्न वाक्योंसे प्रगट है:- की जगह Perfect अर्थात् 'पूर्ण' किया है, मिच्छताविरदिपमादजोगकोहादओ थ विष्णेया। और इस तरह पर पूर्ण श्रद्धान, *पुर्णज्ञान, पण पण पणदह तिय चदु कमसो भेदा दु पुव्वस्स ॥ (केवलज्ञान ) और पूर्णचारित्रहीको मोक्षकी -द्रव्यसंग्रह, पद्य ३० । प्राप्तिका उपाय बतलाया है। परन्तु श्रद्धानादि. मिच्छत्तमविरमणं कसायजोगा य आसवा होति। ककी यह पूर्णता कौनसे गुणस्थानमें जाकर पण वारस पणवीसं पण्णरसा होति तब्भया ॥ होती है और उससे पहलेके गुणस्थानोंमें सम्य -गोम्मटसार, कर्मकांड पद्य ॥ ७८६ ॥ ग्दर्शनादिकका अस्तित्व माना गया है या कि एक ही विषय पर, दोनों ग्रंथों के इन विभिन्न नहीं, साथ ही, इसी ग्रंथकी मूल गाथाओं में रत्नकथनोंसे ग्रंथकर्ताओंकी विभिन्नताका बहुत कुछ त्रयका जो स्वरूप दिया है उससे उक्त कथनका बोध होता है । इन सब बातोंके मौजूद होते हुए कितना विरोध आता है, इन सब बातों पर कोई आश्चर्य नहीं कि द्रव्यसंग्रहके कर्ता अनुवादक महाशयने कुछ भी ध्यान नहीं दिया। गोम्मटसारके कर्तासे भिन्न कोई दूसरे ही नेमिचंद्र इस लिए यह अनुवाद ठीक नहीं हुआ। हों। जैनसमाजमें नेमिचंद्र नामके धारक अनेक (ख ) पृष्ठ ११४ पर, दर्शनावरणी कर्मके विद्वान् आचार्य हो गये हैं। एक नेमिचंद्र ईसाकी क्षयसे उत्पन्न होनेवाले अनंत दर्शनका अनुवाद ग्यारहवीं शताब्दिमें भी हुए हैं जो वसुनंदि-. Perfeet faith अर्थात् 'पूर्ण श्रद्धान ' अथवा सैद्धान्तिकके गुरु थे और जिन्हें वसनंदि सम्यक् श्रद्धान किया है, जो जैनदृष्टि से बिलश्रावकाचारमें 'जिनागमरूपी समुद्रकी वेला- कुल गिरा हुआ है । इस अनुवादके द्वारा मोहतरंगोंसे धूयमान और संपूर्ण जगत्में विख्यात' नीय कर्मके उपशमादिकसे सम्बंध रखनेवाले लिखा है। बहुत संभव है कि, यही नेमिचन्द्र सम्यग्दर्शनको और दर्शनावरणीय कर्मके क्षयोद्रव्यसंग्रहके कर्ता हों। परंतु हमारी रायमें अभीतक पशमादिकसे उत्पन्न होनेवाले दर्शनको एक कर यह असिद्ध है कि, द्रव्यसंग्रह कौनसे नेमिचंद्रा- दिया गया है !! चार्यका बनाया हुआ है, और जबतक यह * देखो इसी ग्रंथका पृ० ११४, जहां Perfect सिद्ध न हो जाय कि द्रव्यसंग्रह तथा गोम्मट- Knowledge ( पूर्ण ज्ञान ) उस ज्ञानको बतलाया सारके कर्ता दोनों एक ही व्यक्ति थे उस समय है जो ज्ञानावरणी कर्मके क्षयसे उत्पन्न होता है।
SR No.522838
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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