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________________ जैनहितैषी . [भाग १३ विक सहधर्मिणी बनने लगें तो देशका बहुत कुछ अनुराग रखते हैं, ऐसा इस ग्रंथके शुरूमें प्रका. उद्धार हो सकता है । अस्तु । ग्रंथमें एक १८ शकद्वारा सूचित किया गया है। पेजका परिशष्ट भी लगा हुआ है जिसमें इस प्रकार ग्रंथका साधारण परिचय देने (A) जिन और जिनेश्वर, ( B ) जैन देवता, अथवा सामान्यालोचनाके बाद अब कुछ विशेष (C) द्वीपायनकी कथा, (D) शब्द, (E) समालोचना की जाती है, जिससे इस ग्रंथमालाके धर्म और अधर्मास्तिकाय, (F) ध्यान, इन सब द्वारा भविष्यमें जो ग्रंथ निकलें उनके प्रकाशित बातोंके सम्बन्धमें कुछ जरूरी सूचनायें दी। करने में विशेष सावधानी रखी जाय और इस गई हैं । इस प्रकार द्रव्यसंग्रहके इस संस्का ग्रंथमें जो ख़ास ख़ास भूलें हुई हैं उनका निरारणको एक उत्तम और उपयोगी संस्करण बना करण और सुधार हो सकेःनेकी हर तरहसे चेष्टा की गई है। इसके तैयार . १ पथके अन्तमें एक पेजका शुद्धिपत्र लगा करने में जो परिश्रम किया गया है वह निःसन्देह हुआ है । इसमें बिन्दु-विसर्ग और मात्रातककी बहुत प्रशंसनीय है। और यह कहनेमें हमें कोई जिन अशुद्धियोंको शुद्ध किया गया है उनके संकोच नहीं हो सकता कि हिन्दीमें अभीतक देखनेसे मालूम होता है कि ग्रंथका संशोधन इसकी जोड़का कोई संस्करण प्रकाशित नहीं बड़ी सूक्ष्म दृष्टिके साथ हुआ है और इस लिए हुआ। सब मिलाकर इस संस्करणकी पृष्ठसंख्या उसमें कोई अशुद्धि नहीं रहनी चाहिए। परन्त ३१८ है ( ३८१ नहीं, जैसा कि पहली तो भी संस्कृत प्राकृतके पाठोंमें उस प्रकारकी सूचीके अन्तमें सूचित किया गया है.)। मूल्य अनेक अशुद्धियाँ पाई जाती हैं । अगरेजीमें सूत्रइस संस्करणका, पृष्ठ-नोटिससे साढे पाँच कृताङ्गको ‘सूत्रक्रिताङ्ग । विष्णुवर्धनको विरुपये मालूम होता है; परन्तु किसी नोटिसमें 'नुवर्धन,' संज्ञाको 'सङ्गा' भुवनवासीको. हमने साढ़े चार रुपये भी देखा है। यह ग्रंथ 'भुवनबासी, ' अनुप्रवेशको " अनुप्रबेश" एक दूसरे मोटे किन्तु हलके कागज पर भी और आभ्यंतरको ‘आव्यंतर ' गलत लिखा छपा है । शायद वह मूल्य उसका हो । अस्तु । है । इस प्रकारकी साधारण अशुद्धियों को छोड़कर इस ग्रंथके प्रकाशित करने में जो अर्थ व्यय हुआ कुछ मोटी अशुद्धियाँ भी देखने में आती हैं । है, उसका छठा भाग रायसाहब बाबू प्यारे लालजी, जैसे पृष्ठ २ पर प्रमेयरत्नमालाके स्थानमें 'परीवकील, चीफकोर्ट, देहलीने अपने पुत्र आदी- क्षामुख,' पृ० ३८ पर अप्रत्याख्यानकी जगह श्वरलालके विवाहोत्सवकी खशीमें प्रदान किया 'प्रत्याख्यान' और प्रत्याख्यानकी जगह 'अप्रत्या है और दूसरा छठा भाग करनालके रईस लाला ख्यान,'पु०४८ पर अजीवविषयको 'जीवविषय' मन्शीलालजीकी धर्मपत्नी, अर्थात् देहरादनके गलत लिखा है । पृ.XXXIII पर पेज नं. x सरकारी खज़ानची ला० अजितप्रसादकी हवाला गलत दिया गया, पृ० XLV पर द्रव्यधर्मपत्नी श्रीमती चमेली देवीकी माताकी संग्रहकी कुछ गाथाओंके नम्बर ठीक नहीं. ओरस दिया गया है । इन उदार व्यक्ति. लिख गये और पु० XLI पर गोम्मटसारके ओरसे दिया गया है । इन उदार व्यक्तियोंकी तरफसे यह ग्रंथ ओरियंटल लायबेरियों 'जीवकांड' का संपादन पं० मनोहरलाल और उन विद्वानोंको भेटस्वरूप दिया जाता है । • देखो पृष्ठ नं. XII, XXVIII, XL, जो जैनफिलासोफ़ी और जैनसाहित्यसे विशेष LIV, 57, 87.....
SR No.522838
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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