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________________ ५३६ . जैनहितैषी- [भाग १३ बाद ( महावीर निर्वाणसे १९१४ वर्ष बादं ) आहार, वसति और वस्त्रादिके लोभसे वहीं रह कुसुमपुर (पाटलीपुत्र-पटना ) में, प्रान्त जायेंगे और कहेंगे कि, कालके स्वभावसे और कर्मके (नीच ) कुलमें कल्कि नामका एक दुष्टात्मा प्रभावसे जो कुछ शुभ-अशुभ होना होगा, वह जन्म लेगा।” इसके बाद कल्किका बहुतसा अवश्य ही होगा, उसे कोन रोक सकता है ? वर्णन दिया है जिसका सार यह है कि कल्कि इसके बाद कल्कि तमाम धर्मोंके साधु-संन्यासिजन्मसे ही अतिशय क्रूर, निर्दय, घातक और योंसे कर वसल करेगा और अंतमें जैनसाधुओंसे लोभी होगा । उसके जन्मसमयमें. मथरामें भी कर माँगेगा। इस पर वे कहेंगे कि हे राजन् ! राम और कृष्णके मंदिर सहसा गिर प- हम तो केवल भिक्षावृत्तिसे अपना जीवननिर्वाह डेंगे ! देशमें सर्वत्र ही चोर, राजविरोध, करते हैं। हमारे पास ‘धर्मलाभ' के सिवाय राज्यभय, दुर्भिक्ष और अनावृष्टि आदि भयंकर और क्या चीज है, जो आपको दी जाय? इस पर उपद्रव मचेंगे । वह १८ वर्ष तक कुमारावस्थामें, भी जब वह कुछ ध्यान न देगा और उलटा रहेगा और उतने ही समयतक जनतामें क्रुद्ध होगा, तब नगर-देवता प्रकट होकर महामारी प्रचलित रहेगी। फिर वह प्रचण्ड राजा कहेगी; कि क्या तू मरना चाहता है, जो मुनि बनेगा । एक दिन वह शहरमें घूमता हआ योंको इस प्रकार सता रहा है ? इससे वह पाँचस्तूपोंको देखेगा और लोगोंसे उनका हाल बहुत भय-भीत होगा और मुनियोंके चरणोंमें पूछेगा । लोग कहेंगे कि, पूर्वमें यहाँपर नन्द पड़कर स्वकृत अपराधकी क्षमा माँगेगा । इसके नामका एक अत्यंत समृद्धिशाली राजा हो बाद.१७ दिनतक लगातार मूसल-धार जलवृष्टि गया है। उसके पास अनन्त सुवर्णराशि थी। होगी, जिससे गंगा और शोणनदके पूर आ ये स्तूप उसीके बनवाये हुए हैं । इनके भीतर जायेंगे और उनमें सारा ही नगर बह जावेगा । उसीकी गाढ़ी हुई सुवर्णराशि संरक्षित है। उसे एक प्रातिपद नामके आचार्य, कल्कि राजा, कोई निकाल नहीं सकता। यह सुनकर वह उन और थोड़ेसे नगर-निवासी लकड़ियोंके सहारे स्तूपोंको खदवा डालेगा और उनमेंसे उस सुवर्ण- तैरकर बच जायेंगे। इसके बाद नन्द राजाके राशिको निकाल लेगा । इसके बाद लोभके स्तूपोंमेंसे मिले हुए धनके द्वारा कल्कि फिर एक वशीभूत होकर वह और भी अनेक स्थानोंको नया नगर बसायगा और शान्तिके साथ नीति. खुदवायगा । अभिमानसे अन्धा होकर वह अन्य पूर्वक राज्य करने लगेगा, अनेक जैन मंदिर बन सब नृपतियोंको तृणवत् समझने लगेगा । कुछ जायँगे और साधु पूर्वकी ही तरह सर्वत्र सुखपूर्वक दिनोंके बाद जब वह अपने नगरकी जमीनको विचरने लगेंगे। धान्यका बहुत सुकाल हो खुदवाने लगेगा, तब उसमेंसे एक पाषाणकी गऊ जायगा। इस प्रकार वह ५० वर्ष तक सुराज्य, निकलेगी और वह भिक्षाके लिए जाते हुए जैन करेगा। परन्तु जब उसकी मृत्यु निकट आ जायगी साधुओंको अपने सींगों द्वारा मारनेको दौड़ेगी ! तब उसकी बुद्धि फिर बिगड़ेगी। पूर्वकी तरह फिर यह देखकर जो स्थविर साधु होंगे वे सोचेंगे कि भी वह सारे भिक्षुकोंसे कर माँगेगा । जैनमुनियोंसे भविष्यमें यहाँ पर बड़ा भारी जलोपसर्ग होगा, भी वह उनकी भिक्षाका षष्ठांश या छठा हिस्सा इस लिए इस प्रदेशको छोड़कर कहीं अन्यत्र चले करके रूपमें लेना चाहेगा । जब मुनि कर देनेसे जाना चाहिए । ऐसा विचार कर कितने ही साधु इन्कार करेंगे, तब वह उन्हें एक बाड़ेमें पशुतो अन्य प्रदेशोंमें चले जायेंगे और कितने ही ओंकी तरह बन्द कर देगा। मुनिजन इस
SR No.522838
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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