SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनहितैषी [भाग १३ ४० वर्ष तक मुरुदय ( मौर्य ?) वंशने और अह साहियाण कक्को णियजोग्गो जणपदे पयत्तेण । ३० वर्षे तक पुष्यमित्रने राज्य किया । फिर सुक्कं जाचदि लुद्धो पिक्कं जावताव समणाओ ॥१०१॥ ६० वर्ष तक वसुमित्र अग्निमित्रने, १०९ दाऊणं पिंडग्गं समणा कालोय अंतराणं पि। वर्ष तक गन्धर्व राजाओंने और ४० वर्ष गच्छंति ओहिणाणं उजइ तेसु एकंपि ॥ १०२ ॥: तक नरवाहन या नहपान राजाने. राज्य अकोवि असुरदेवा ओहोदो मुणिगणाण उवसगं । किया। इसके बाद भ्रत्यान्ध्रराजा हुए। इन भ्रत्या- णादणं तरक्को मारेदिहु धम्मदोहिंति ॥ १०३ ॥ का राज्य २४२ वर्षे तक रहा । इनके बाद गु- कक्किसुतो अजिदजय णामो रक्खंति णमदि तच्चरणे । प्तोंका राज्य २३१ वर्ष तक रहा और तब कल्कि तं रक्खदि असुरदेओ धम्मे रज्जं करेजंति ॥ १०४॥ उत्पन्न हुआ। यह इन्द्रका पुत्र था और चतु- ततो दोबे वासो सम्मं धम्मो पयदि जणांणं । मख इसका नाम था। वह ७० वर्षे तक जिया कमसो दिवसे दिवसे कालमहप्पेण हैं।एदे ।। १०५ ॥ और ४२ वर्ष तक उसमे राज्य किया। इस एवं वस्स सहस्से पुहकक्की हवेइ इक्क्के को। तरह भी सब मिलाकर (६०+१५५+४०+ पंचसयवच्छरेसु एकेको तहम उक्कक्की ॥१०६ ॥ ३०+६०+१००+४०+२४२+२३१+४२: अर्थ--जब कल्किने अपने योग्य देशोंको १०००)एक हजार वर्ष हात है । यत्नपर्वक जीत लिया, तब वह अतिशय लुब्ध आचारंगधरादो पणहत्तरिजुत्तदुसयवासेसुं । बनकर जिस तिस श्रमण ( जैनमुनि) से शुल्क बोलीणेसुं बद्धो पट्टो कक्कीस णरवइणो ॥ १०॥ या कर माँगने लगा। इस पर श्रमण अपना पहला अर्थ---आचरांगधारीके बाद २ ग्रास दे देकर भोजनमें अन्तराय हो जानेसे जाने तने पर कल्कि राजा पट्ट पर बैठा । आचारांग- लो। उन मनियों में से किसी एकको अवधिज्ञान धारीका अस्तित्व वीर नि० संवत् ६८३ तक हो गया । उधर कोई असुर-अवधिज्ञानसे यह था । उसमें २७५ जोड़नेसे ९५८ हुए। इसमें जानकर कि मुनियोंको उपसर्ग हो रहा है-आया ४२ वर्ष कल्किके राज्यके मिलानेसे पूरे १००० और उसने धर्मद्रोही कल्किको मार डाला। कल्किहो जाते हैं। का अजितंजय नामका पुत्र था, उसको असुरने ___१ ग्रन्थकर्ताको जान पड़ता है, यही मत मान्य बचा दिया और उससे धर्मराज्य कराया । इसके है कि शकसे ४६१ वर्ष पहले भगवान्का निर्वाण बाट दो वर्ष तक लोगोंमें धर्मकी प्रवृत्ति अच्छी हुआ था । २ हरिवंशपुराणमें जो इसी अभिप्रायके तरह होती रही; परन्तु फिर दिनों दिन कालके श्लोक हैं और जो हमारा विश्वास है कि, इसी ग्रन्थसे अनुवाद किये गये हैं, मुरुदयका अनवाद मरण्ड माहात्म्यस उसको हानता होने लगी। आगे इसी किया गया है । ३ सूलमें 'गन्धव' शब्द है तरह प्रत्येक एक एक हजार वर्ष में एक एक जिसकी छाया 'गन्धर्व' होती है, पर हरिवंशपुराणके कल्कि और प्रत्येक पाँच पाँच सौ वर्षमें. एक एक कर्त्ताने 'गदभ' मानकर इसके पर्यायवाची शब्द उपकल्कि होगा ।। १०१-१०६॥..... 'रासभ' को इन राजाओंके लिए प्रयुक्त किया है ! क्या ही अच्छा हो यदि यह प्राचीन ग्रन्थ १ हरिवंशपुराणमें ' भच्छहाणं ' का अनुवाद उपकर प्रकाशित हो जाय । यदि कोई धर्मात्मा 'भवाणस्य ' किया है; परन्तु वह ठोक नहीं मालूम सज्जन सहायता करें तो यह 'माणिकचन्द-ग्रन्थहोता । इस शब्दसे ग्रन्थकर्ताका मतलब आन्ध्रभृत्य राजाओंसे जान पड़ता है। ये बहुत प्रसिद्ध राजा माला' में निकाला जा सकता है। लगभग डेट हुए हैं। 'भच्छद्धाणं ' शब्द माननेसे उसका अनु- हजार रुपये में इस ग्रन्थका उद्धार हो सकता है। वाद ' भृत्यान्द्राणां' किया जा सकता है।
SR No.522838
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy