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लोकविभाग और त्रिलोकप्रज्ञप्ति ।
अङ्क १२ ]
होती है कि वे धर्मसूत्र या सिद्धान्त ग्रन्थके कर्त्ता यतिवृषभ ही हैं । इसके सिवाय आगेकी गाथाका अर्थ यदि यह हो कि " चूर्णिस्वरूप और षट्करणस्वरूपके श्लोका जो (संयुक्त) प्रमाण है, वही आठ हजार श्लोक इस त्रिलोकप्रज्ञप्तिका प्रमाण है । "तो - यह बात और भी अधिक स्पष्ट हो जाती है । यतिवृषभकी जो चूर्णिसूत्र नामक छः हजार श्लोक परिमित टीका हे, उक्त गाथाका 'चूर्णि - स्वरूप ' शब्द उसीके लिए आया जान पड़ता है। षट्करणस्वरूप ' नामका और भी कोई ग्रन्थ इन्हीं आचार्यका बनाया हुआ होगा और उसकी श्लोकसंख्या दो हजार होगी । वह ग्रन्थ बहुत करके गणितका होगा । करणसूत्र गणित के सूत्रों को कहते हैं । उक्त दोनों ग्रन्थोंके बनानेके बाद श्रीयतिवृषभने त्रिलोकप्रज्ञप्तिको बनाया होगा, इस लिए इसमें उनका यह लिखना आश्चर्य जनक नहीं कि हमारे पहले दो ग्रन्थोंकी एकत्रित श्लोकसंख्या जितनी है, उतनी इस ग्रन्थकी है । पाठक शंका करेंगे कि, पहली गाथामें जो ( यतिवृषभं ' शब्द है, वह श्रेष्ठ आचार्योंका बाचक भी तो हो सकता है। हम इस बातको मानते हैं; परन्तु साथ ही यह भी कहते हैं कि, ग्रन्थकत्तीने इसमें अपना नाम भी ध्वनित किया है । इस तरहके नमस्कारात्मक गाथा - श्लोक आदि और भी अनेक ग्रन्थोंमें मिलते हैं; जिनमें किसी तीर्थकर आदिको नमस्कार किया है और साथ ही अपना नाम भी ग्रन्थकर्त्ताओंने ध्वनित कर दिया है । नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीका यह गाथार्ध सभीको याद होगा' विमलवरणेमिचंदं तिहुवणचंदं णमस्सामि । ' इसी तरह सोमदेव आचार्यने नीतिवाक्यामृतके प्रारंभ में लिखा है- 'सोमं सोमसमाकारं सोमाभं सोमसंभवं । सोमदेवमुनिं नत्वा नीतिवाक्यामृतं
।' इसकी टीका में यह बात स्पष्ट शब्दों में कह
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दी गई है कि ग्रन्थकर्त्ता ने इसमें सोम अर्थात् चन्द्रप्रभका स्तवन किया है और साथ ही अपना नाम भी ध्वनित कर दिया है । गरज यह कि यतिवृषभं ' विशेषणमें ग्रन्थकर्त्ताने अपना नाम भी ध्वनित किया है ।
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तीसरी गाथा में कहा है कि “ मैंने यह ग्रन्थ प्रवचनशक्तिसे प्रबुद्ध होकर धर्मकी प्रभावनाके लिए बनाया है । इसे बहुश्रुत आचार्य शुद्ध करें। " अपना नाम प्रकट न किया होता तो इस गाथामें यह न कहा जाता कि 'मैंने " इस ग्रन्थको बनाया है । इससे मालूम होता है कि इसके पहले ग्रन्थकर्त्ता अपना नाम प्रकट कर चुके हैं और वह नाम यतिवृषभ ही हो सकता है।
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अब यह देखना चाहिए कि, यतिवृषभाचार्यका समय क्या है । इन्द्रनन्द्रिके ग्रन्थसे तो इसका कुछ निश्चय हो नहीं सकता है । क्योंकि / यतिवृषभने जिन गुणधर आचार्यक शिष्योंसे पढ़ा था, उनका समयादि इन्द्रनन्द्रिको मालूम ही नहीं था । वे इस बात को स्पष्ट शब्दोंमें स्वीकार करते हैं: गुणधरधरसेनान्वयगुर्वैः पूर्वापरक्रमोंऽस्माभिः । न ज्ञायते तदन्त्रय कथकागममुनिजनाभावात् ॥
ऐसी दशामें यतिवृषभका निश्चित समय मालूम करना बहुत कठिन है । साधारण दृष्टि से देखनेसे इसमें अन्य किसी ग्रन्थके' उक्तं च ' श्लोकादि भी नहीं मिले, जिससे समयनिर्णय में कुछ सहायता मिलती । हाँ यह बात अवश्य कही जा सकती है कि त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थ संस्कृत लोकविभागसे पहलेका बना हुआ है। क्यों कि उसमें इसकी पचासों गाथायें उद्धत की गई हैं। पर प्राकृत लोकविभागसे पहलेका, अर्थात् शक संवत् ३८० के पूर्वका, यह ग्रन्थ कदापि नहीं हो सकती। क्योंकि इसमें जिस कल्कि - राजाका वर्णन है, वह इसी ग्रन्थके समयनिरू