Book Title: Vyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask Author(s): Ramashish Pandey Publisher: Prabodh Sanskrit Prakashan View full book textPage 8
________________ में शब्दों के अर्थ प्रकाशन के साथ साथ निर्वचन भी हो जाते हैं। इस सम्प्रदाय का मूल प्रयोजन निर्वचन करना नहीं है। फलत: इसे निरुक्त सम्प्रदाय से किंचित भिन्न सम्प्रदाय माना जायगा। याज्ञिक का अर्थ होता है यज्ञ से सम्बन्ध रखने वाला। वेद प्रयुक्त शब्दों के अर्थ का यज्ञपरक प्रतिपादन याज्ञिकों का मूल उद्देश्य होता है। अर्थ प्रकाशन उनका भी उद्देश्य है लेकिन उन अर्थों में यज्ञ से सम्बद्धता प्राधान्येन विवक्षित होती है। इस क्रम में शब्दों के निर्वचन भी हो जाते हैं लेकिन निर्वचन करना इनका मूल उद्देश्य नहीं होता। इसी प्रकार अर्थप्रतिपादित करने वाले अन्य सम्प्रदाय भी शब्दों का अर्थ प्रतिपादन करते हैं जिस क्रम में कुछ शब्दों के निर्वचन भी हो जाते हैं। शब्दों के निर्वचन का उत्स ऋग्वेद से ही प्राप्त होता है। निर्वचन की यह धारा किसी न किसी रूप में आज तक प्रचलित है। शब्दों के अर्थों का अवबोध आज भी जिज्ञासा का विषय है। हम देखते हैं कि शब्दों के साथ कुछ वैसी क्रियाओं का प्रयोग कर दिया जाता है जिससे उस शब्दकी ध्वन्यात्मक, अर्थात्मक या किसी प्रकार की संगति स्पष्ट हो जाती है। वैदिक साहित्य से इस प्रकार के उद्धरण इस ग्रन्थ में यथा स्थान प्रदर्शित हैं। लैकिक संस्कृत के प्रसिद्धकवि कालिदास द्वारा क्षत्र शब्द को स्पष्ट करने के लिए-क्षतात् किल त्रायत उत्युदन: क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रुढ़: (रघु. २/५३) में क्षत्र शब्द में क्षित्रै धातुओं का संकेत स्पष्ट है। निर्वचन प्रक्रिया में भी इसी प्रकार धातुओं का सम्बन्ध स्पष्ट किया जाता है। समग्र संस्कृत साहित्य में इस प्रकार के कुछ निर्वचन प्राप्त होते हैं। निर्वचन पर अब तक जो कार्य हए हैं वे सभी यास्क के निरुक्त से सम्बद्ध विविध टीकाओं, अनुवादों एवं समीक्षणों के रूप में प्राप्त हैं। निरुक्त पर किए गए कार्यों में पांचवीं शताब्दी के स्कन्दस्वामी की निरुक्त टीका सर्वप्राचीन है। इन्होंने निरुक्त के बारह अध्यायों की व्याख्या की है। अन्तिम दो अध्याय इनके द्वारा व्याख्यात नहीं हैं। स्कन्द की निरुक्तटीका निरुक्त के अर्थज्ञान का प्राचीनतम स्रोत है। तेरहवीं शताब्दी के दुर्गाचार्य ने निरुक्त पर विस्तृत टीका लिखी जो दुर्गवृत्ति के नाम से विख्यात हैं। निरुक्त पर इस प्रकार की पाण्डित्यपूण व्याख्या दूसरी नहीं प्राप्त होती। निरुक्त के साथ दुर्गवृत्ति संस्कृत प्राकृत पुस्तकमाला बम्बई एवं वेंकेटेश्वर प्रेस से प्रकाशित है।। मनसुखराय मोर, कलकत्ता द्वारा दुर्गवृत्ति के प्रकाशन ने निरुक्त के अध्ययन अध्यापन को अत्यधिक आयामित किया। दुर्गवृत्ति के नाम से निरुक्त के चौदह अध्यायों पर यह वृत्ति प्रकाशित है लेकिन लगता है कि अन्तिम दो अध्यायोंPage Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 538