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वीश
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| सदा भक्ति करवी जली, घरी मनमांदे टेक ॥ ४ ॥ अरिहंत पण जेहनें नमे, आठ करमकृतनास ॥ पनरभेद वे सिद्धना, कोसा समरे नहि तास ॥ ५ ॥
ढाल पहेली ॥ चोपानी देशी ॥
निरंजन चिदानंद स्वरूप, लोकाग्र पहोता जेह रूप || सिमांहेबे चार अनंत, वली जे सादि अनंत स्थितिवंत ॥ १ ॥ गुण एकवीश सिद्ध भगवान, परम इश पर आत्म प्रमान ॥ एक सिद्ध तिहां सिद्ध अनंत, बाधा मांहोमांहे न हुंत || || जनम मराना दुःख नही जिहां, केहनो जय न पराभव तिहां ॥ कलेश तणो पण नहीं लवलेश, सिद्ध रह्या जिहां करी निखेस ॥ ३ ॥ केलिथं जनी परें प्रसार, सुख संसार तणां किहां सार ॥ किदां लोकाय थका नतपन्न, सिद्ध तणो वैभव | सुख धन्य ॥ ४ ॥ सिद्धतला गुण तीन प्रतीत, तोपण आठ कह्या गुण प्रीत ॥ समकित नाएा दंसण दाखीयें, वीर्य सूक्ष्म अवगहा जाखीयें ॥ ५ ॥ अगुरुलघुनें अन्याबाध, सिद्धता गुण आठ अगाध ॥ पनरेनेदें थाये तेह, नाम कहुं तेहना गुणगेह ॥ ६ ॥ जिने अंजिननें ती गृहिलिंगी अन्यलिंग स्वतीर्थ ॥ पुंस्त्री क्लीब प्रत्येक स्व बुद्ध, वो "धित एक अनेक विशुद्ध ॥ ॥ ७ ॥ सिइनक्तिना जे रागीया, तीरथ पुंमरीक सोनागीया ॥ अष्टापद सम्मेत गिरिंद, श्रीगिरनारादिक गुणवृंद ॥ ८ ॥ सितणां एथानक कह्यां, तीरथ यात्रा कारक नमह्यां ॥ करे आतमा) नित्य निर्मलो, फटिक तणीपरें होइ नजला ॥ ए ॥ ऋपेन थया अष्टापद सिद्ध, चंपा वासुपूज्य गुणऋ६ ॥ पावा वेईमान अरिहंत, श्रीने मीसर गिरि उजंत ॥ १० ॥ ए टाली तीर्थंकर जेद, जाइ जरा मरण करे बेह ॥ श्री सम्मेत शिखर गदगदी, वीश तीर्थंकर सीधा सही ॥ ११ ॥ चैत्री पूनम दिन गुणनरथा, पंचकोमी मुनिशुं परिवरया || पुंडरीक संलेहा करी, शत्रुंजय पहु ॥
तीर्थ,
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स्थान०
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