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वीश
स्थान
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तहमां न गणीये, नर राचे ते मूरख्ख रे॥गुण॥११॥ईणे संसार असारमें, सारने एक श्रीजिनधर्म रे॥ जिनधर्मविना क्य नवि होवे, महादुष्ट अष्ट ए कर्म रे ॥ गुण ॥१॥ ते धर्म अ बे प्रकारनो, पंचमहाव्रत मुनिवर धार रे॥ सुरनां सुख लहियें जघन्यथी, नत्कृष्टो मुक्ति दातार रे ॥ गुण ॥१३॥ बीजो वली धर्म श्रावक तणो, अणुव्रत शिवाव्रत सार रे ॥ नत्कृष्टो लहीयें बारमें, देव नूवनें अव-IN तार रे ॥ गुण ॥ १४ ॥ कामधेनु कल्पसुरमणी, एक नवनां आपे सुख्ख रे ॥ ए धर्म नवान्नव सुख दीये, कापे नवनवना दुख्ख रे॥गुण ॥१५॥ सांसारिक दुःखथी आतमा, मूकाये धर्म पसाय रे॥ समकित सहित जो कीजीयें, जिनहर्ष कहे ए नपाय रे ॥ गुण ॥१६॥
॥दोहा॥ एहवी सांजली देशाना, श्रीगुरुतणी विशुद्ध ॥ मीठी अमृत सारखी, ततहण नृप प्रतिबुझ॥ SE१॥ दुःखत्रय आवर्तमां, नमियो प्राणी मुन्ज ॥ करुणानिधि तारो हवे, शरण आव्यो हुँ तुज॥ Sel ॥ जिम सुख देवाणु प्पिया, मा पमिबंध करेह ॥ गुरु आदेश लेई करी, आव्यो राय घरेह ॥Na Nar३॥ साते खेत्रे वावयु, वित्त सुवित्त नरेश ॥ श्रीजिनन्नक्ति करी घणी, संघन्नक्ति सुविशेष ॥४॥
राज्य धुरायें थापियो, पुरुषसिंह कुमार ॥ मंत्री सहित सनबर्वे, नृप आव्यो तेणीवार ॥ ५॥ गुरुपासे आवी करी, बे जण दीक्षा लीध ॥ गुरुपासे शीखी क्रिया, षष्टाष्टम तपकीध ॥ ६ ॥ दुष्कर व्रत तप आदरयु, समिति गुप्ति प्रति पाल ॥ गुण सत्तावीशें करी, शोनित नित्य विशाल ॥ ७ ॥ राजऋषि नव पूर्वधर, धरे व्रत अप्रमत्त ॥ एक दिवस मन चिंतवे, श्रुतजल निर्मलचित्त ॥७॥
du३॥ ॥ ढाल ॥ दशम। ॥ वीर सुणो मोरी वीनति, कर जोमी हो कहुं मननी वात के ॥ एदेशी ॥ LI गुरु गिरुआ गुरु गुणधरा, गुरु आपे हो ज्ञान लोचन सार।गुरु दुर्गति जावा न ये, परदेशी हो ।
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