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॥ १२ ॥ हवे वेयावच्च सांजलो, धर्म साधन सुप्रमाण ॥ श्राचारज नवजाय नो, धेरै तर्वैस्सी गिलास || सु० ॥ १४ ॥ शिष्यं श्रने सामी तणो, कुलंगणं संघ सुजाण ॥ वेयावच्च ए दशतलो, करवो धरी जिन प्राण || सु० ॥ १५ ॥ पंच प्रकार सकायनो, वाचना प्रवेना दोय ॥ प्रवर्तन अनुप्रेदाए, धर्म कथानो जोय ॥ सु ॥ १६ ॥ वली प्रार्त्त रोई ध्यान वे, धर्म ध्यान शुक्लै ध्यान ॥ ध्यान चतु ए कह्यां, जाव सुणो हवे कान ॥ सु० ॥ १७ ॥ राज्योपयोग शयनासनें, वंदन स्त्री गंध माल ॥ मणि रत्न भूषण विषे, इवा घरे विशाल ॥ सु० ॥ १८ ॥ मोह धरे ए नपरें, न टले मन अभिलाख || दायक तिर्यंच योनीनुं, प्रार्त्त ध्यान ते दाख || सु० ||१|| बेदन दहन अंजल तणो, मारण बंध प्रहार ॥ अनुकंपा यावे नहीं, ए रौइ ध्यान विचार ॥ सु० || २० || सूत्र अर महाव्रततणो, बंध प्रमोद विचार || गति प्रगति प्राणी दया, ए धर्मध्यान प्रकार ॥ सु० ॥ २१ ॥ जेहना इंयि विषयश्री, उपरांग अधिकार ॥ शुभयोगें मृत प्रातमा, शुक्लध्यान संचार ॥ सु० ॥ ॥ २२ ॥ आरति तिर्यंचगति दीये, रौइ नरक धर्म देव ॥ शुक्लध्यान गति मोहनी, इम जिनहर्ष कदेव || सु० ॥ २३ ॥
॥ दोहा ॥
संसारदुखी मूकावे जेह ॥ अष्ट कर्मनो कय करे, शुक्ल धर्म ध्यावेह ॥ कायायें कीधो नही, पापतणो व्यापार ॥ प्रारत ध्यान थकी थयो, दाडुर नंदमणियार || २ || हिंसा कर्म करचा विना, प्राणी नरकें जाय ॥ तंदुलमत्स तणीपरें, रौद्रध्यान कहेवाय ॥ ३ ॥
ढाल बी ॥ धनधन संप्रति साचो राजा ॥ ए देशी ॥
ज्ञानी मुनिवर इणिपरें जाखे, विषय कषाय जे पासें रे ॥ दुष्ट ध्यान मनमांहे घ्यावे, ते दुर्ध्यान
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