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नत्रत्रत्र
ध्यान ॥ १ ॥ कण कणमांहिं ध्याववुं, हृदय कमल शुभ ध्यान ॥ आतम समता रोपवी, तजी प्रमाद दुर्ध्यान ॥२॥ प्रार्त्त रौ घ्य ध्यान तजी, धर्म शुकल शुतध्यान ॥ मनमांहे ते ध्यावेवा, सुख दुख दुरित निधान ॥ ३ ॥ आर्तध्यान तिर्यंचगति, रौड़ नरक गति होय ॥ धर्मध्यानश्री सुरगर, शुक्ल ध्यान शिवलोय ॥ ४ ॥ पंचविषयनो लोलपी, मोह प्रमाद सावधान ॥ जिनमतने प्रवलतो, नर ते आर्त ध्यान ॥ ५॥ खुशी होवे पर प्रापदा, महानिर्दय निशदीश || पाप करी हरखे घणो, रौइध्यान ते विष ॥ ६ ॥ जिनमुनि गुण कीर्तन करे, विनय शील संपन्न | संयम सूत्र सुं रक्त मन, धर्मध्यान धनधन्न ॥७॥खंति, मुत्ति, महवा, जव, जिनमतमांहि प्रधान ॥ इत्यादिक आलंबने, चढे सदा शुक्लध्यान ॥ ॥ ढाल पेहेली ॥ नवी नवी नगरी में वरो सोनार ॥ एदेशी ॥
शुभ ध्यानकेरा चार प्रकार, पिंकस्थादिक करो विचार ॥ कपट रहित समता सुं नूत, जवकोमी रज गमण प्रभूत ॥ १ ॥ देह रह्यो गतकर्म पवित्र, चंद प्रज्ञा ज्ञानींदु यत्र ॥ ग्रात्मैश्वर्य निहाले जेह, ध्यान पिंकस्थ कहीजें तेह ||२|| मंत्र तथा अकर शारीर, पद्मपत्र चिंते घरी धीर ॥ योगीश्वर गुरूने उपदेश, तेह पदस्थ ध्यान सुविशेष ॥ ३॥ पांत्रीश शोल अने पटपंच, चौदगणा ध्यावो शुभ संच ॥ परमेष्टि व्यापकने धन्य, वली गुरूने नपदेशे अन्य ॥५॥पंच परमेष्टि पदपण त्रीश, मनमें ध्याइ जें निशदीश ॥ अरिहंत सिद्धायरी योवझ्झाय, साहु एह सोलह कहेवाय ॥ ५ ॥ अरिहंत सिद्ध व ए नाखीया, असिया नसा पंच दाखीया ॥ अरिहंत चार सिद्ध तिम दोय, एक नॅकार कहीजें सोय ॥ ६ ॥ अथवा लोकालोक प्रमाण, कनकवरण आना मन प्राण || विद्या सहस्र स्थानक सदु देव, पूजित सर्व शांतिकर हेव ॥ ७ ॥ पंच परमेष्टि प्रथम सुवर्ण, तेहथी संभव निर्मलवर्ण ॥ ते ओंकार | सदा ध्याइयें, जेहथी मन वांवित पाइयें ॥ ८ ॥ अष्ट प्रातिहार्य सहित दिएांद, समवसरण बेठा
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