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चवी विदेह मोकार || गणधर थाशेजिनतणो रे, पहिलो धर्म आधारो रे ॥ ध० ॥ २३ ॥ हस्तिपाल राजा तणुं रे, चरित्र पवित्र सुखकार । सांजली हृदय घरी करी रे, प्राणी नाव अपारो रे ॥ध॥२४॥ सिद्ध जक्ति थानक सदा रे, बीजो ए दितवंत ॥ आराधो जले जावशुं रे, ईम जिनदर्ष कहंतो | || ध० ॥ २५ ॥ सर्वगाथा ।। १०२ ।। इति श्री विंशतिस्थाने द्वितीयस्थानकं समाप्तम् ॥ श्री तृतीय प्रवचनपद स्थानक प्रारंभः ॥
॥ दोहा ॥
कपटोमी सुविवेकियें, करवी प्रवचन नक्ति ॥ चार भेद प्रवचन तणा, श्रमण संघ निजशक्ति ॥ १ ॥ पूजनीक जिन त्रिजगें, जिनमें ते पूजनीक || भक्ति तेहनी कीजीयें, जावघरी तहकीक ॥२॥ तीर्थकृत्कर्म नपार्जवा, मूल बीज वे एह ॥ श्रीप्रवचननी जक्तिथी, तीर्थंकर थया जेह ॥ ३ ॥ इा प्रवचन पूजे थके, नथी न पुज्युं जेह ॥ संघकी अनेर, पूजा योग्य न तेह ॥ ४ ॥ यनाव बे नेदश्री, तेहनी नक्ति विचार || प्रथम भक्ति जेम कीजीयें, सुराजो ते अधिकार ॥
ढाल पहेली ॥ जनी हेजो रे दीशे नाहलो रे एदेशी ॥
अंतःकरण निर्मल प्रतिउजलां रे, निरवद्य जसुव्यापार || त्रिकरण शुछें जेह पाले सदा रे, चारित्र निरतीचार ॥ १ ॥ प्रवचन केरी रे भक्ति करो घणी रे, पामो जिम शिवराज || संघ चतुर्विध नांख्यो शास्त्रमां रे, जिन सरिखो जिन राज ॥ प्रव० ॥ २ ॥ आचरणा पण जेहनी नजली रे, कपट रहित शुधचित्त || दशविध धर्मतणी धारे धुरारे, परिग्रह ग्रंथ रहित ॥ प्र० ॥ ३ ॥ सहित सत्तावीशे सुगुणेंकरीरे, समताना अंकार, समिति गुपति शुद्धि नीति साचवेरे, अप्रतिबंध विहार ॥ प्र० ॥ ४ ॥ त्री जे प्रहरे रे जाये गोचरी रे, टाले दोष बियाल | पांच मंगलनां दोष टाली करी रे,
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