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वार-स्तुति
कहं च नाणं कह दंसणं से, सीलं कहं नाय-सुतस्स आसी। जाणासि णं भिक्खु! जहातहणं,
अहासुतं ब्रूहि जहा णिसंतं ॥२॥ उस ज्ञातनन्दन वीर का कैसा विशदतर ज्ञान था ? कैसा सुदर्शन था तथा कैसा चरित्र महान था ? अच्छी तरह से जानते हो आप तो गुरुवर ! समी। जैसा सुना, निश्चय किया, वैसा कहो मुझसे अभी ॥२॥
ज्ञातनन्दन वीर का कैसा विलक्षण ज्ञान था ? और दर्शन - शील कैसा शुद्ध था, असमान था ? आप भगवन् ! जानते हैं ठीक - ठीक वताइए, सुना, निश्चय किया, वह मम सब समझाइए ।।२।।
आर्य जम्बूस्वामी ने गुरुदेव श्रीसुधर्मास्वामी से पुनः प्रार्थना की कि - गुरुदेव ! ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर के सम्बन्ध में आप खूब अच्छी तरह जानते हैं । अस्तु. यह बताने का अनुग्रह कीजिए कि भगवान महावीर का ज्ञान कैसा था, दर्शन कैसा था, और शील-आचार कैसा था ? आपने जैसा सुना और निश्चय किया हो, तदनुसार बताने की कृपा करें।
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