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वोर-स्तुति टिप्पणी—'दीव' का संस्कृतरूप दीप भी होता है। इस दिशा में यह अर्थ करना चाहिए ---- "भगवान का अहिंसा-धर्म अज्ञान अन्धकार में भटकने वाले प्राणियों को दीपक के समान प्रकाश देता है और निरापद बनाता है।"
प्रस्तुत सूत्र में बस और स्थावर शब्द आए हैं, उनमें पृथ्वी जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के जीव स्थावर कहलाते हैं, और शेष द्वीन्द्रिय आदि संसारी जीव त्रस हैं। __ जैन-धर्म आत्मा को नित्य और अनित्य रूप से उभयात्मक मानता है। जीव-स्वरूप द्रव्य की दृष्टि से आत्मा नित्य है । क्योंकि मूल स्वरूप से आत्मा का कभी नाश नहीं होता, वह अजर-अमर है। परन्तु पर्याय अर्थात् परिवर्तन की दृष्टि से
आत्मा अनित्य भी है। आत्मा मनुष्य, पशु आदि शरीर के नाश की दृष्टि से अनित्य है। शरीर का नाश पर्याय की दृष्टि से आत्मा का नाश समझा जाता है। शरीर के नाश से आत्मा पीड़ा भी पाता है, अस्तु अहिंसा धर्म की सिद्धि के लिए आत्मा । को न तो सांख्य एवं वेदान्त के अनुसार सर्वथा कूटस्थ नित ही मानना चाहिए और न बौद्ध धर्म के अनुसार बिल्कुल अनित्य क्षण-भंगुर ही । सर्वथा नित्य पक्ष में परिवर्तन न होने से आत्मा का परलोक आदि सिद्ध नहीं होता। इसी प्रकार सर्वथा अनित्य पक्ष में भी क्षणिक आत्मा का परलोक आदि कैसे सिद्ध होगा, चूकि कर्म करने वाला आत्मा तो क्षणभर में ही समाप्त हो गया। अत: परलोक में कौन कर्म-फल भोगेगा ? अतः जैन-धर्म का मार्ग नित्य और अनित्य दोनों के समन्वय में है, एकान्त में नहीं। यह जैन-धर्म का स्याद्वाद है।
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