________________
२८
वीर-स्तुति
पुढोवमे धुणइ विगयगेही. न सरिणहिं कुव्वइ आसुपन्ने । तरिउं समुद्र व महाभवोघं, अभयंकरे वीर वीर अनंतचवू ||२५||
भगवान पृथ्वी-तुल्य सर्वाधार निश्चल शक्त थे । थे कर्म- मल से रहित, आशातीत संग्रह - मुक्त थे | थे सर्वदा उपयोग वाले, भीम भवदधि तैर कर । संपूर्ण जग-जीवों के रक्षक थे, अपरिमित ज्ञान-धर ॥ २५ ॥ वासनाओं से रहित, भू-तुल्य सर्वाधार थे, कर्म - रज- नाशक, अमल सन्तोष के भंडार थे । सर्वदा उपयोग युत, भवसिन्धु भीषण तैर कर वीर अभयंकर अमित ज्ञानी हुए जग-क्षेमकर ||२५|| भगवान महावीर पृथ्वी के समान सब जीवों के आधारभूत थे, अथवा पृथ्वी के समान भयंकर उपसर्ग और परीषहरूप कष्टों को समभाव से सहन करने वाले क्षमावीर थे, कर्ममल का नाश करने वाले थे, आशा - तृष्णा से सर्वथा रहित थे । भगवान ने धन-धान्य आदि किसी भी पदार्थ का कभी भी संग्रह नहीं किया। उनका ज्ञान निरन्तर उपयोग - सहित था । महा भयंकर संसार सागर को तैरकर वीर प्रभु ने अभयंकर ( सब प्राणियों को अभय करने वाले ) एवं अनन्त ज्ञानी का सर्वोत्कृष्ट पद प्राप्त किया था ।
No
Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org