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वीर-स्तुति
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महामंडलेश्वर सम्राट् भी भगवान के चारों ओर प्रदक्षिणा लगाया करते थे और उपदेश श्रवण करने के लिए सदा लालायित रहते थे।
सुमेरु के समान भगवान के दिव्य शरीर का वर्ण भी सुवर्ण जैसा कान्तिवाला एवं पीतवर्ण का था।
भगवान के चरणों में प्राणिमात्र को आध्यात्मिक आनन्द प्राप्त होता था। अधिक क्या, स्वर्गवासी इन्द्रों को भी भगवान की सेवा में आकर ही शान्ति प्राप्त होती थी। भगवान अपने युग में विश्व-शान्ति के एक मात्र केन्द्र थे।
से पव्वए सद - महप्पगाले, विरायती कंचण - मट्ठ-वण्णे ।
अणुत्तरे गिरिसु य पव्व-दुग्गे, गिरीवरे से जलिए व भोमे ॥१२॥ वह मेरुपर्वत किन्नरों के गान से नित गंजता। मल-मुक्त कांचन तुल्य वह देदीप्यमान सुशोभता ।। मेखला से दुर्ग सारे पर्वतों में श्रेष्ठ है।
भूदेश-तुल्य विचित्र शोभावान अति उत्कृष्ट है ॥१२॥ तप्त स्वर्ण - समान पीला वर्ण शोभावान है, __ शब्द - गुजन का जहाँ विस्तार दिव्य महान है । विश्व के सव पर्वतों में श्रेष्ठतम गिरिराज है, दीप्त भौम-समान उज्ज्वल तेज का शुभ राज है ॥१२॥
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