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वीर-स्तुति पुढे नभे चिट्ट भूमि-बट्ठिए, जं सूरिया अणु - परिवयंति । से हेमवन्ने बहुनंदणे य, जंसी रतिं वेदयती महिंदा ॥११॥ वह भूमि को आकाश को है स्पर्श कर ठहरा हुआ। चहुं ओर ज्योतिषगण फिरे फेरी सदा देता हुआ ।। है नंदनादिक चार वन से युक्त कान्ति सुवर्ण-धर । अनभव करें र ति का सदा देवेन्द्र जिस पर आनकर ॥११॥
भूमि-तल से गगन-तल को स्पर्श करता है खड़ा, सर्य - चन्द्र प्रदक्षिणा करते, लगे सुन्दर बड़ा। नन्दनादिक वन मनोहर, स्वर्ण जैसी कान्ति है, स्वर्ग-पति देवेन्द्र भी पाता यहाँ विश्रान्ति है ।।११॥
सुमेरु पर्वत ऊपर आकाश को और नीचे भूमि को स्पर्श करके खड़ा हुआ है। सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहगण अविराम गति से चारों ओर प्रदक्षिणा करते रहते हैं। स्वर्ण के समान सुन्दर कान्ति है और नन्दन आदि वनों से सुशोभित है। साधारण देवताओं की तो बात ही क्या, स्वयं इन्द्र भी सुमेरु पर्वत पर आकर विश्रान्ति, सुख प्राप्ति करते हैं।
टिप्पणी-भगवान महावीर के अहिंसा और सत्य आदि के सिद्धान्त सुमेरु के समान सदैव ऊर्ध्वमुखी रहे हैं ।
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