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वार-स्तुति
अणत्तरग्ग परमं महेसी, असेस-कम्मं स विसोहइत्ता । सिद्धिंगते साइमणंतपत्ते, नाणेण सीलण य दंसणेण ॥१७॥
निःशेष कर्म-समूह को पूरी तरह से नष्ट कर । सर्वातिवर लोकाग्र में स्थित हो गए हैं साधुवर ॥ सद्ज्ञान दर्शन-शील द्वारा शुद्ध अपने को किया। उत्कृष्ट सादि-अनंत मुक्ति स्थान को है पा लिया ॥१७॥ कर्म-मल को पूर्ण विधि से नष्ट कर निर्मल हुए. लोक में सब से प्रवर लोकाग्र में अविचल हुए। ज्ञान, दर्शन, शील का अध्यात्म-पथ अपना लिया, सादि और अनन्त उत्तम सिद्ध का पद पा लिया ।।१७।।
महर्षि महावीर ने सब कर्मों को सदाकाल के लिए समुल नष्ट करके लोक के अग्रभाग में स्थित सर्व प्रधान, सादि अनन्त, उत्कृष्ट मोक्ष गति को प्राप्त किया। भगवान ने सिद्ध पद की प्राप्ति में अन्य किसी पर भरोसा न रख अपने ही प्रयत्न पर भरोसा किया, फलतः अपने ज्ञान, दर्शन एवं शील के द्वारा कर्म-बन्धन से मुक्ति प्राप्त की।
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