Book Title: Veerstuti
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 13
________________ वीर-स्तुति उडढ अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा । से णिच्च-णिच्चेहि समिक्खपन्ने, दीवे व धम्म समियं उदाहु ॥४॥ उस प्राज्ञने ऊँची अधः तिरछी दिशा में जीव जो : जंगम व स्थावर भेद से संसार में है व्याप्त जो ॥ अच्छी तरह से जान उनको नित - अनित के रूप से। वर्णन किया वर दीप-सम सद्धर्म का सम-भाव से ॥४॥ विश्व के त्रस और स्थावर जीव सव निज ज्ञान में, देखकर, सिद्धान्त नित्य - अनित्य का रख ध्यान में । वीर स्वामी ने अहिंसा धर्म का वर्णन किया, द्वीप-सम हितकर साम्य तत्त्व बता दिया ।।४।। भगबान महावीर ने ऊपर, नीचे, और तिरछे तीनों लोकों में जो भी त्रस और स्थावर जीव हैं, सबको द्रव्य की दृष्टि से नित्य और पर्याय की दृष्टि से अनित्य बताया है। अतएव भगवान का यह अनेकान्तवाद की मुद्रा से अंकित श्रेष्ठ अहिंसा धर्म, संसार सागर में डुबते हुए असहाय प्राणियों को समुद्र में द्वीप -- टापू की तरह समानभाव से आश्रय देने वाला है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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