Book Title: Vasnunandi Shravakachar
Author(s): Sunilsagar, Bhagchandra Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 15
________________ (७) हैं। बार-बार दुःख का साक्षात्कार करने से बीमार रोग की प्रगाढ़ता से परिचित हो जाता है, वस्तु-स्थिति को स्वयं जानने लगता है और फिर उसी आत्मा में वास करने वाले परमानन्द स्वरूप को प्राप्त करने का लक्ष्य बना लेता है। तथाकथित ईश्वर रूप परमात्मा का भाव उसके मन में आता ही नहीं। है भी नहीं। इसलिए जैनधर्म को नकारात्मक और दुःखवादी नहीं माना जाना चाहिए। जैनधर्म संसार को स्वप्न और माया भी नहीं कहना चाहता। वह तो हमें उसकी यथार्थता से परिचित कराता है। इसलिए धर्म की यह परिभाषा बड़ी व्यावहारिक है और जैनधर्म भी उसी व्यावहारिक दृष्टिकोण के साथ संसारियों को दुःख से मुक्त कराने का प्रयत्न करता है। वह व्यक्ति को उन दुःखों से पलायन करने की सलाह नहीं देता बल्कि जूझने और संघर्ष करने की प्रेरणा देता है और आगाह करता है कि इन सांसारिक दुःखों का मूल कारण राग और द्वेष हैं कर्म मोह की प्रबलता से उत्पन्न होता है। वह जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण की भव-परम्परा दुःख का मूल है। इस संसार में कहीं भी सुख नहीं है। जन्म-मरण के चक्कर में सुख होगा भी कहाँ? इसलिए यदि हम यथार्थ सुख पाना चाहते हैं तो जन्म-मरण के भव-चक्कर से मुक्त होना आवश्यक हैं, उपादेय भी यही है। . इस घोषणा में व्यक्ति की स्वतन्त्रता उद्घोषित है। उसे स्वयं विचार करने और ध्यान करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। उसके ऊपर ईश्वर जैसा कोई तनाव नहीं है। वह स्वयं अपने कर्म का निर्माता और भोक्ता है। इस चिन्तन से वैराग्य का जागरण होता है, सचेतनता आती है, क्रान्ति होती है, रूपान्तरण होता है और समता का जन्म हो जाता है। समता आने से साधक के चैतन्य की दशा विरागता से भर जाती है। वह संसार में रहते हुए भी उसी प्रकार वहाँ रहता है जिस प्रकार पोखर में खिला हुआ कमल जल में रहता हुआ भी जल से असंप्रक्त रहता है। 'जैनधर्म के चिन्तन का केन्द्रीभूत तत्त्व है- आत्मा। आत्मा के अतिरिक्त उसमें न संसार का मूल्य है और न परमात्मा का। वह स्वार्थ की बात करता है, स्वयं के कल्याण की, मंगल की, आत्महित की बात करने वाला ही परहित की बात सोच सकता • है। वहां “मैं” नाम के तत्त्व का भी कोई अस्तित्व नहीं। अहंकार विसर्जन बिना एकाकीपन की साधना हैं वह व्यष्टि-निष्ठ आनन्द है। जो स्वयं आनन्दित होता है वह दूसरे को भी आनन्दित कर देता है। दुःखी व्यक्ति दूसरे को आनन्दित कर ही नहीं सकता। यहाँ स्वार्थ में परार्थ सधा हुआ है, आत्मा में परमात्मा बसा हुआ हैं। इसलिए आत्म-साधना से ही परमात्म-साधना होगी। परमात्मा कोई ईश्वर नहीं, सृष्टि का कर्ता-हर्ता-धर्ता नहीं। बहिरात्मा में व्यक्ति बाहर ही बाहर घूमता रहता है उसके अन्तर का संगीत खोया रहता है, स्वभाव से विमुख रहता है। राग-द्वेषादि विकारों से ग्रस्त रहता है। जब जागरण विवेक का होता है तो वह संसार से विमुख हो जाता है, स्व-पर चिन्तन करने लगता है, अन्तरात्मा की ओर बढ़ जाता है और ध्यान-सामायिक करने

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