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नहीं है।
मिथ्यादर्शन से क्रोध उत्पन्न होता है और क्षमा सम्यग्दर्शन से उत्पन्न होती है। पंचम गुणस्थानवर्ती अणुव्रती से लेकर नौवें-दसवें गुणस्थान में महाव्रती के उत्तम क्षमा है पर नौवें ग्रैवेयक तक पहुंचने वाले मिथ्यादृष्टि व द्रव्यलिंगी के उत्तमक्षमा नहीं होती।
___ मार्दव का विरोधी भाव मान है। दु:ख अपमान में नहीं, मान की आकांक्षा में है। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, समृद्धि, तप, वपु और बल के अभिमान से दूसरे को नीचे दिखाने का भाव पैदा होता है। इससे सत्व की खोज नहीं हो पाती। बिना विनय के भक्ति और आत्मसमर्पण कहां? प्रतिक्रिया और प्रतिशोध को जन्म देने वाले अहंकार को समाप्त किये बिना जीवन का बदलना संभव नहीं है।
___ धर्म प्रतिस्रोत का मार्ग है, आत्मनिरीक्षण का पथ हैं ऋजुता आये बिना धर्म का मर्म पाया नहीं जा सकता। शौचधर्म में चरित्र विशुद्ध हो जाता है और अकषाय की स्थिति आ जाती है और लोभ चला जाता है सत्य, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य आदि धर्म भी आध्यात्मिक साधना को जाग्रत करते रहते हैं और विचारों की पवित्रता को बनाये रखते हैं। इन धर्मों का पालन करने से संकल्प शक्ति का विकास होता है और साधक ध्यान साधनाकर आत्मस्वरूप के चिन्तन में डूबने लगता है। २. धर्म का मोक्षमार्गात्मक स्वरूप
तीर्थङ्कर महावीर ने साधना की सफलता के लिए तीन कारणों का निर्देश किया है- सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। इन तीनों तत्त्वों को समवेत रूप में “रत्नत्रय" कहा जाता हैं दर्शन का अर्थ श्रद्धा अथवा व्यावहारिक परिभाषा में आत्मानुभूति कह सकते हैं। श्रद्धा और आत्मानुभूति पूर्वक ज्ञान और चारित्र'का सम्यक योग ही मोक्ष रूप साधना की सफलता में मूलभूत कारण है। मात्र ज्ञान अथवा चारित्र से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए इन तीनों की समन्वित अवस्था को ही मोक्षमार्ग कहा गया है- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्ग:-तत्त्वार्थसूत्र, १.१। रत्नत्रय का पालन ही धर्म है। इस प्रकार की परिभाषायें देखिए(१) सदृष्टि-ज्ञानवृत्तानि धर्मधर्मेश्वरा विदुः- रत्नकरण्डश्रावकाचार-३। (२) धम्मो णाम सम्मद् दंसण-णाण-चरित्ताणि- धवला, पु० ८, पृ० ९२। (३) सम्यग्दृप्राप्ति चारित्रं धर्मो रत्नत्रयात्मक: -लाटी संहिता- ४.२३७-३८।
__मोक्ष प्राप्ति का रत्नत्रय के साथ अविनाभाव सम्बन्ध है। जिस प्रकार औषधि पर सम्यक् विश्वास, ज्ञान और आचरण किये बिना रोगी रोग से मुक्त नहीं हो सकता उसी प्रकार संसार के जन्म-मरण रूपी रोग से मुक्त होने के लिए रत्नत्रय का सम्यक् योग होना आवश्यक है