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(१९) विशुद्ध आत्मा का परिणाम है। धर्म से परिणत आत्मा को ही सम कहा गया है। धर्म की परिणति निर्वाण है। आचार्य कुन्दकुन्द का यही चिन्तन है
संपज्जदि णिव्वाणं देवासुरमणुवरायविहवेहि। जीवस्स चरित्तादो दंसणणाणप्पहाणादो।। चारित्तं खलु धम्मो जो धम्मो सो समो ति णिदिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हि समो।।
-प्रवचनसार, १.६-७ धर्म वस्तुतः आत्मा का स्पन्दन है जिसमें कारुण्य, सहानुभूति, सहिष्णुता, परोपकार वृत्ति, आदि जैसे गुण विद्यमान रहते हैं। वह किसी जाति या सम्प्रदाय से संबद्ध और प्रतिबद्ध नहीं। उसका स्वरूप तो सार्वजनिक, सार्वभौमिक और लोकमांगलिक है। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व का अभ्युत्थान ऐसे ही धर्म की परिसीमा से संभव है। हिंसा के चार भेद हो जाते है- स्वभावहिंसा, स्व-द्रव्यहिंसा, पर भावहिंसा और पर-द्रव्यहिंसा (पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, ४३)। आचार्य उमास्वामी ने इसी का संक्षेप "प्रमत्तयोगात प्राणव्यपरोणं हिंसा" कहा है। इसलिए भिक्षुओं को कैसे चलना फिरना चाहिए, कैसे बोलना चाहिए आदि जैसे प्रश्नों का उत्तर दशवैकालिक, मूलाचार आदि ग्रन्थों में दिया गया है कि उसे यत्नपूर्वक अप्रमत्त होकर उठना-बैठना चाहिए, यत्नपूर्वक भोजन-भाषण करना चाहिए।
कहं चरे कहं चिढे कहमासे कहं सए। कहं भुंजन्तो भासन्तो पावं कम्मं न बंधई ।।
जयं चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयं सए। - जयं भुंजन्तो भासन्तो पावं काम्मं न बंधई।।
- दशवैकालिक, ४.७-८; मूलाचार . हिंसा का प्रमुख कारण रागादिक भाव हैं उनके दूर हो जाने पर स्वभावत: अहिंसा भाव जाग्रत हो जाता है। दूसरे शब्दों में समस्त प्राणियों के प्रति संयमभाव ही अहिंसा है- अहिंसा निउणं दिट्ठा सब्बभूएस संजमो (दश)। उसके सुख संयम में प्रतिष्ठित हैं संयम ही अहिंसा है। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए यह आवश्यक है कि वे परस्पर एकात्मक कल्याण मार्ग से आबद्ध हों। उसमें सौहार्द, आत्मोत्थान, स्थायी शान्ति, सुख और पवित्र साधनों का उपयोग होता है। यही यथार्थ में उत्कृष्ट मंगल है। दशवैकालिक १.१; मूलाचार