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और साध्य पवित्र होंगे। तर्क शुष्कता से हटकर वास्तविकता की ओर बढ़ेगा। हृदय-परिवर्तन के माध्यम से सर्वोदय की सीमा को छुएगा। चेतना-व्यापार के साधन इन्द्रियां और मन संयमित होंगे। सत्य की प्रमाणिकता असंदिग्ध होती चली जायेगी। सापेक्षिक चिन्तन व्यवहार के माध्यम से निश्चय तक क्रमश: बढ़ता चला जायेगा, स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर, बहिरंग से अन्तरंग की ओर सांव्यावहारिक से पारमार्थिक, की ओर, ऐन्द्रयिक ज्ञान से आत्मिक ज्ञान की ओर।
अनेकान्तवाद और सर्वोदय दर्शन समाज के लिए वस्तुत: एक संजीवनी है। वर्तमान संघर्ष के युग में अपने आपको सभी के साथ मिलने-जुलने का एक अभेद्य अनुदान है, प्रगति का एक नया साधन है, पारिवारिक द्वेष को समाप्त करने का एक अनुपम चिंतन है, अहिंसा और सत्य की प्रतिष्ठा का केन्द्रबिन्दु है, मानवता की स्थापना . में नीव का पत्थर है, पारस्परिक समझ और सह अस्तित्व के क्षेत्र में एक सबल लेंप पोष्ट है। उसकी उपेक्षा विद्वेष और कटता का आवाहन है, संघर्षों की कक्षाओं का प्लाटं है, विनाश उसका क्लायमेक्स है, विचारों और दृष्टियों की टकराहट तथा व्यक्ति-व्यक्ति के बीच खड़ा हुआ एक लम्बा गैप वैयक्तिक और सामाजिक संघर्षों को लांघकर राष्ट्र
और विश्वस्तर तक पहुंच जाता है। हर संघर्ष का जन्म विचारों का मतभेद और उसकी पारस्परिक अवमानना से होता है। बुद्धिवाद उसका केन्द्रबिन्दु है।
अनेकान्तवाद बुद्धिवादी होने का आग्रह नहीं करता, आग्रह से तो वह मुक्त है ही पर वह इतना अवश्य कहता है कि बुद्धिनिष्ठ बनो। बुद्धिवाद खतरावाद है, विद्वानों की उखाड़-पछाड़ी है। पर बुद्धिनिष्ठ होना खतरा और संघर्षों से मुक्त होने का साधन है। यही सर्वोदयवाद है। इसे हम मानवतावाद भी कह सकते हैं जिसमें अहिंसा, सत्य, सहिष्णुता, समन्वयात्मकता, सामाजिकता, सहयोग, सद्भाव और संयम जैसे आत्मिक गुणों का विकास सन्निहित है। सामाजिक और राष्ट्रीय उत्थान भी इसकी सीमा से बहिर्भूत नहीं रखे जा सकते। व्यक्तिगत, परिवारगत, संस्थागत और सम्प्रदायगत विद्वेष की विषैली आग का शमन भी इसी के माध्यम से होना संभव है। अत: सामाजिकता के मानदण्ड में अनेकान्तवाद और सर्वोदयवाद खरे उतरे हैं।
___धर्म के साथ एकात्मकता अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। राष्ट्र का अस्तित्व एकात्मकता की शृंखलां से सम्बद्ध है। राष्ट्रीयता का जागरण उसके विकास का प्राथमिक चरण है। जन-मन में शान्ति, सह अस्तित्व और अहिंसात्मकता उसका चरम बिन्दु है। विविधता में पली-पुसी एकता सौजन्य और सौहार्द को जन्म देती हुई “परस्परोपग्रहो जीवानाम'' का पाठ पढ़ाती है।
जैन भावकाचार व्यवस्था ने उस एकात्मकता को अच्छी तरह परखा भी और संजोया भी। अपने विचारों में उसे जैनाचार्यों और तीर्थङ्करों ने समता, पुरुषार्थ और