Book Title: Vasnunandi Shravakachar
Author(s): Sunilsagar, Bhagchandra Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 13
________________ (५) का दुष्कृत्य है जिन्होंने कभी धर्म का अनुभव ही नहीं किया बल्कि निजी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आम जनता को भड़काया, भीड़ को जमा किया, उसकी आस्था और विश्वास का दुरुपयोग किया और धर्मान्धता की आग में धर्म की वास्तविकता को भस्म कर दिया, उसके अध्यात्मिकता के निर्झर को सुखा दिया। इसलिए धर्म के स्वरूप में स्वानुभूति का सर्वाधिक महत्त्व है इसी को "रसो वै सः " कहा गया है, अनिर्वचनीय और परमानन्द रूप माना गया है। एकेश्वरवाद से हटकर व्यक्ति सर्वेश्वरवाद की ओर जाता है और फिर स्वयं को ही परम विशुद्ध रूप परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठित कर आत्मा को ही परमात्मा समझने लगता है। धर्म की यह विकास प्रक्रिया व्यष्टि से समष्टि की ओर ले जाती है और उसे विश्वजनीन बना देती है। इस पृष्ठभूमि के साथ जब हम धर्म की परिभाषा की ओर निहारते हैं तो देशी-विदेशी चिन्तकों की परिभाषायें सामने आ बैठती हैं। इन परिभाषाओं की संख्या इतनी अधिक है कि इस छोटे-से आकार में उनका आकलन करना संभव नहीं है हां, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि हर चिन्तक धर्म की परिभाषा अपने चबूतरे पर बैठकर करता है। इसलिए उसके सांस्थानिक धर्म का रूप वहाँ प्रतिबिम्बित हुए बिना नहीं रहता। अतः धर्म की परिभाषा को उसके मूल स्वरूप के साथ मूल्यांकित किया जाना आवश्यक हो जाता है। धर्म का अनुवाद अंग्रेजी में साधारणत: रेलीजन (Religion) शब्द से किया जाता है। यह शब्द लेटिन भाषा के शब्द से उद्भूत हुआ है जिसका अर्थ होता हैबांधना। सभी दार्शनिकों द्वारा दी गई धर्म की परिभाषा इसी शब्द के आसपास घूमती · दिखाई देती हैं इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि धर्म एक ऐसा तत्त्व हैं जो आराध्य तथा आराधक, उपासक तथा उपास्य, व्यक्ति तथा समाज को बांधे रहता है । १ भारतीय संस्कृति में जब हम धर्म शब्द पर विचार करेंगे तो हमारा ध्यान ब्राह्मण और श्रमण संस्कृति की ओर बरबस खिंच जाता है। धर्म 'धृ' धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ होता है बनाये रखना, धारण करना, पुष्ट करना (धारणात् धर्ममित्याहुः धर्मेण विधृताः प्रजाः)। यह वह मानदण्ड है जो विश्व को धारण करता है किसी भी • वस्तु का वह मूल तत्त्व, जिसके कारण वह वस्तु वह है । वेदों में इस शब्द का प्रयोग धार्मिक विधियों के अर्थ में किया गया है । छान्दोग्योपनिषद् में धर्म की तीन शाखाओं (स्कन्धों) का उल्लेख किया गया है। जिनका सम्बन्ध गृहस्थ, तपस्वी और ब्रह्मचारियों के कर्तव्यों से है— (यो धर्मस्कन्धाः २.२३) । जब तैत्तिरीय उपनिषद् हम से धर्माचरण (धर्मचर- १.११) करने को कहता है, तब उसका अभिप्राय जीवन के उस सोपान के कर्तव्यों के पालन से होता है, जिसमें हम विद्यमान हैं। इस अर्थ में धर्म १. Everyman's Encyclopedia, Volume x, Fourth Edition, 1958, p.512.

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