Book Title: Vasnunandi Shravakachar
Author(s): Sunilsagar, Bhagchandra Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 10
________________ को पवित्र, निष्कलंक व उन्नत बनाता है। यही उसकी विशेषता है, यही जैन संस्कृति है और यही सर्वोदयतीर्थ है। यही सर्वोदय तीर्थ मानवधर्म है। यही सामाजिकता है। ___ कटघरों को तैयार करने वाला और राष्ट्रीयता को दूषित करने वाला धर्म, धर्म नहीं हो सकता। भेदभाव की कठोर दीवार खड़ीकर खेत उगाने की बात करने वाला धर्म संकीर्णता के विष से बाधित हो जाता है, तुरन्त फल का लोभ दिखाकर जन-मानस को शंकित और उद्विग्न कर देता है, दूसरों को दुःखी बनाकर अपने क्षणिक सुख की कल्पनाकर आह्लादित होता है, विसंगतियों के बीज बोकर समाज को गर्त में फेंकता है और सारी सामाजिक व्यवस्था को चकनाचूर कर नया बखेड़ा शुरू कर देता है। इन काले कारनामों से धर्म की आत्मा समाप्त हो जाती है, उसका मौलिक स्वरूप नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है और बच जाता है उसका मात्र कंकाल जो किसी काम का नहीं रहता। इसे हम धर्म का प्रदूषण रूप कह सकते हैं। ___ जैनधर्म व्यक्ति और समाज को धर्म की इस कंकाल-मात्रता से ऊपर उठाकर ही बात करता है। उसका मुख्य उद्देश्य जीवन के यथार्थ स्वरूप को उद्घाटित कर • नूतन पथ का निर्माण करना रहा है। यही धारणा करने वाला तत्त्व है जिसका अस्तित्व धर्म के अस्तित्व से जुड़ा है और जिसके टूट जाने से मानवता का सूत्र भी कट जाता है। मानव-मानव के बीच कटाव के तत्त्वों को समाप्तकर सर्वोदय के मार्ग को प्रशस्त करना धर्म की मूल भावना है। व्यक्ति और समाज के उत्थान की भूमिका में धर्म नींव का पत्थर होता है। इसलिए जैनधर्म ने धर्म की व्यवस्था और उसकी प्रस्थापना में बड़ी गहराई से विचार किया है। उसके समस्त सांस्कृतिक तत्त्व धर्म के अन्त:करण से जुड़े हुए हैं। श्रमणाचार व्यवस्था ने राष्ट्रीय और सामाजिक एकात्मकता को अच्छी तरह परखा था और संजोया था। अपने विचारों में जैनाचार्यों और तीर्थकरों ने उसकी समता, पुरुषार्थ और स्वावलम्बन वृत्ति को प्रमुखता देकर जीवन-क्षेत्र को एक नया आयाम दिया जिसे महावीर और बुद्ध जैसे महामानवीय व्यक्तित्त्वों ने आत्मानुभूति के माध्यम से पुष्पित-फलित किया। श्रमण संस्कृति ने वैदिक संस्कृति में धोखे-धाखे से आयी विकृत परम्पराओं और प्रदूषित पर्यावरण के विरोध में अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और अनायास ही समाज का नवीनीकरण और स्थितिकरण कर दिया। इस समाज की मूल निधि चारित्रिक पवित्रता और अहिंसात्मक दृढ़ता थी जिसे उसने थाती बनाकर कठोर झंझावातों में संभालकर रखा। विभज्यवाद और अनेकान्तवाद के माध्यम से समन्वय और एकात्मकता के लिए जो अथक प्रयत्न जैनधर्म ने किया है वह निश्चित् ही अनुपम माना जायेगा। बौद्धधर्म में तो कालान्तर में विकृतियाँ आ भी गईं पर जैनधर्म ने चारित्र के नाम पर कभी कोई समझौता नहीं किया। .

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