Book Title: Vasnunandi Shravakachar
Author(s): Sunilsagar, Bhagchandra Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 9
________________ १. जैनधर्म और समाज १. श्रावकाचार और मानवता जैनधर्म एक मानवतावादी धर्म है जो साध्य और साधन, दोनों की पवित्रता में विश्वास करता है। उसने जाति और वर्ग के भेदभाव को दूरकर प्राणिमात्र की शक्ति को पूर्ण स्वतन्त्रता देकर प्रतिष्ठित किया है, धर्म की वास्तविकता को उद्घोषित किया है और मानव को चरम शिखर पर बैठा दिया है। इसलिए उसका किसी विशेष काल-खण्ड में प्रारम्भ हुआ हो, ऐसा नहीं माना जा सकता। उसका तो प्रारम्भ तभी से मान्य है जब से मानव इस वसुन्धरा पर अवतरित हुआ है। अत: उसे यदि अनादि और अनन्त कहा जाये तो अनुचित नहीं होगा। इसलिए हमने यहाँ जैनधर्म को “मानवधर्म'' की संज्ञा दी है। मानवता की जो गहरी दृष्टि जैनधर्म ने दी है वह अन्यत्र दुर्लभ है। यही उसकी अहिंसा है और यही उसकी सुरक्षा की प्रक्रिया है। इसी को धर्म कहा गया है। इसी धर्म की भूमि में श्रावकाचार का निर्माण हुआ हैं और इसी ने सामाजिक सन्तुलन को प्रशस्त किया है। १. धर्म की आवश्यकता क्यों? ___धर्म जीवन है और जीवन धर्म है। जीवन पवित्रता का प्रतीक है। उसकी पवित्रता संसार के राग-रंगों से दूषित हो गई है। इसलिए उस दूषण-प्रदूषण को दूर करने के लिए तथा जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए धर्म की अन्तश्चेतना कार्यकारी है। यह अन्तश्चेतना विवेक को जाग्रत करती है और उस जाग्रति से व्यक्ति खुली हवा में नयी सांस लेता है। नयी प्रतिध्वनि से उसका हृदय गूंज उठता है। गम्भीरता, उदारता, दयालुता, सरलता, निरहंकारता आदि जैसे मानवीय गुण उसमें स्वतः स्फुरित होने लगते हैं। जीवन अमृत-सरिता में डुबकी लेने लगता है। देश, काल, स्थान आदि की सीमायें समाप्त हो जाती हैं तथा विश्वबन्धुत्व तथा सर्वोदय की भावना का उदय हो जाता है। जैनधर्म इस दृष्टि से वस्तुत: जीवन-धर्म है। वह जिन्दगी को सही ढंग से जीना सिखाता है, जात-पात के भेदभाव से ऊपर उठकर राष्ट्रीयता के परिवेश में अध्यात्म का अवलम्बन कर अपने सहज स्वभाव को पहचानने का मूलमन्त्र देता है, श्रम-शीलता का आह्वानकर पुरुषार्थ को जाग्रत करता है, विवाद के घेरों में न पड़कर सीधा-सादा प्राकृतिक मार्ग दिखाता है, संकुचित और पतित आत्मा को ऊपर उठाकर विशालता की ओर ले जाता है, सद्वृत्तियों के विकास से चेतना का विकास करता है और आत्मा

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