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पराङ्ग चरितम्
भूमिका
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जाता था। 'नसियाँ' इसीका. अपभ्रंश प्रतीत होता है। यतः अनेक जैन साधु समाधिमरणके लिए कोप्पन जाते थे अतः यही सम्भव प्रतीत होता है कि जटाचार्यने कोप्पनमें समाधिमरण किया होगा जिसकी स्मृतिमें उनके परमभक्त 'चावय्यं' ने चरणपादुका बनवायी होंगी। यद्यपि इस लेखमें केवल 'जटासिंहनन्दि' का उल्लेख है तथापि नामसे उल्लेख किये जानेके कारण कहा जा सकता है कि यह लेख कन्नड़ कवियों द्वारा नमस्कृत इन्हीं वरांगचरितकार जटाचार्यका ही निर्देश करता है। इसके अतिरिक्त लेखका काल भी उक्त निष्कर्षका समर्थन करता है। लेखके अक्षरोंके आकार तथा अंकनके प्रकारके आधारपर विद्वान् सम्पादकने' इसे १०वीं शतीका लेख बताया है। इन्हीं बातोंपर विचार करके डॉ० उपाध्येका अनुमान है कि यह लेख आसानीसे ८८१ ई० के आस पासका खुदा होना होना चाहिये, क्योंकि इसके अक्षारादि वहीं मिले उस शिलालेख के समान हैं जिसमें उक्त सम्वत्का निर्देश है । डॉ० उपाध्येके मतसे यह लेख ईसाकी ८वीं शतीका भी हो सकता है।
यद्यपि शिलालेख आचार्य जटासिंहनन्दिको रचनाओं आदिके विषयमें पूर्ण मौन है तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि यह शिलालेख वरांगचरितकार जटाचार्यके ही समाधिमरणका स्मारक है, क्योंकि इसमें खुदा 'जटा' विशेषण इन्हें अन्य सिंहनन्दियोंसे अलग कर देता है । कन्नड़ साहित्यमें सुलभ विविध निर्देश यह बताते हैं कि जटाचार्य संभवतः कर्णाटकवासी रहे होंगे। उस समयका कर्णाटक कावेरीसे गोदावरी तक फैला था जिसमें कोप्पल पड़ता है। इतना ही नहीं, उस समयका कोप्पल विद्वानोंका मरण स्थान भी था जैसा कि कुमारसेन आदिके मरणस्थल होनेसे स्पष्ट है। इन सब साक्षियोंके आधारपर कहा जा सकता है कि जन्मजात महाकवि, उग्र तपस्वी, निरतिचार परिपूर्ण संयमी, परम प्रतापो, रंक तथा राजाके हितोपदेशी, सर्वसम्मत आचार्य तथा सुप्रसिद्ध जैन मुनि श्री जटाचार्य ही वरांगचरितके निर्माता थे । जटासिंहनन्दिका समय
वरांगचरित अपने कर्ताके समान अपने निर्माणके समयके विषयमें भी मौन है। अर्थात् समयके विषयमें भी अब तक कोई अन्तरंग साक्षी हस्तगत नहीं हुआ है। फलतः केवल उत्तरवर्ती लेखकोंके समयके आधारपर इतना कहा जा सकता है कि आचार्य जटासिंहनन्दि इस वर्षके पहिले हुए होंगे। सबसे प्राचीन तथा स्पष्ट निर्देश कुवलयमालाका है। कुवलयमालाकार श्री उद्योतनसूरिके बाद श्री जिनसेनाचार्य प्रथमने अपने हरिवंशपुराणमें वरांगचरितका उल्लेख किया है। इनके बाद जिनसेन द्वितीयने आदिपुराणमें इस ग्रन्थका निर्देश किया है। जहाँ पम्पने जटाचार्यका स्मरण किया है वहीं आदर्श-मंत्री चामुण्डरायने वरांगचरितके उद्धरण दिये हैं। इनके बाद धवल, नयसेन, पाचपंडित, जन्न, गुणवर्म, कमलभव तथा महाबल कविने वरांगचरित या जटाचार्य या दोनोंको स्मरण किया है। अर्थात् जटाचार्य और उनका वरांगचरित ८वीं शतीके चतुर्थ चरणमें ही पर्याप्त प्रसिद्ध हो गया था क्योंकि उद्योतनसूरिका समय ७७८ ई० निश्चित-सा हो है। हरिवंशपुराणके प्रारम्भमें आया वरांगचरितका उल्लेख भी १. है. आ० सी, सं० १२ (१९३५ ) में केवल प्राचीन लिपि अध्ययनके आधारपर । २. इस शिलालेखके च, चा, व, प, आदि वर्ण कन्नड़के उन शिलालेखोंके इन वर्गों से बिल्कुल मिलते हैं जिनपर ८८१ ई० सम्वत् खुदा है।
यदि विसदृशता है तो केवल ज वर्णकी खुदाईमें है । इन्हीं हेतुओंके आधारपर डॉ० उपाध्ये शिलालेखका समय ८वीं शतीमें ले जाते हैं।
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