Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ PARASHeaue-e भूमिका ses ! इसी बातकी पुष्टि करता है क्योंकि यह ७८३ ई० में समाप्त हुआ था। फलतः यह अत्यन्त स्वाभाविक है कि ८३८ ई० के लगभग 1 अपना आदिपुराण प्रारम्भ करते हुए आचार्य जिनसेन द्वितीयको जटाचार्यके लहराते जटा अर्थ समझातेसे लगे। आदिपुराणके में । इस निर्देशसे प्रतीत तो ऐसा होता है कि संभवतः, यदि आचार्य जिनसेनने जटासिंहनन्दिके दर्शन नहीं किये थे तो उनकी किसी वराज । मूर्ति या चित्रको अवश्य देखा था यही कारण है कि उनके मानस्तलपर लहराते जटा चित्रित हो रह गये। चरितम् ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, जटाचार्य और वरांगचरितकी ख्याति बढ़ती ही गयो। इसीलिए १०वीं शतीमें महाकवि पम्पने इन्हें सविनय स्मरण किया और चामुण्डरायने तो इनके उद्धरण ही दे डाले यही अवस्था ११वी १२वीं शतीमें हुए महाकवि धवल तथा नयसेनकी है। १३वीं शतोमें तो वरांगचरित और जटाचार्य कवियोंके आदर्श बन गये थे क्योंकि पार्श्वपंडित (१२०५ ), जन्न ( १२०९), गुणवर्म ( १२३० ), कमलभव (ल. १२३५ ) तथा महाबलकवि ( १२५४ ) ने इसी शतीको गौरवानन्वित किया था। महत्त्वको बात तो यह है कि वरांगचरित और उसके रचयिताको ८वीं शतीके उत्तरार्द्धमें ही समस्त भारत तथा सम्प्रदायोंमें मान्यता प्राप्त हो चुकी थी। क्या इस ख्याति और लोकप्रियताको पानेमें कुछ भी समय न लगा होगा? । स्वाभाविक तो यही है कि उस प्रकाशन तथा गमनागमनके साधन विरल युगमें इस ख्यातिने पर्याप्त समय लिया हो। ऐसा प्रतीत होता है कि वरांगचरित अपने ढंगको सर्वप्रथम चतुर्वर्ग समन्वित धर्मकथा थी। फलतः इसे विश्रुत होनेमें उतना अधिक । समय न लगा होगा जितना कि उस युगमें लगना चाहिए था तथापि उद्योतनसूरि तक पहुँचनेमें इसे कुछ समय अवश्य लगा। होगा । उद्योतनसूरिका निर्देश तो यह भी सूचित करता है कि आचार्य रविषेणके सामने भी वरांगचरित था। आचार्य जटिल ॥ द्वारा किसी पूर्ववर्तीका निर्देश न किया जाना भी इसका पोषक है। बरांगचरितकी आदि-काव्यता जहाँ उसकी प्रतिष्ठाका प्रसार करती है वहीं यह भी कठिन कर देती है कि वे किसके बाद हुए होंगे । अर्थात् उनके समयकी पूर्वसीमा दुरूह हो रह जाती है। ग्रन्थमें आगत व्यक्ति तथा पुरुषोंके नामादि भी इस दिशामें विशेष सहायक नहीं हैं क्योंकि जैन पुराणोंको इतिहास करनेवाला 'पार्जीटर' आज भी समयके गर्भ में है। वर्ण्य विषय, विशेषकर तत्त्व चर्चाओंके आधारपर भी बलपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि जटाचार्यने इस आचार्यके इस तत्त्वशास्त्रका विशेष रूपसे अनुसरण किया है। क्योंकि समस्त तत्वशास्त्र उपलब्ध भो नहीं है और जो हैं वे प्रवाहपतित हैं । इनमें आये सैद्धान्तिक तथा दार्शनिक विवेचन इतने सदृश हैं कि उनके आधारपर पूर्वा-परताका निर्णय करना विज्ञान विरुद्ध है उदाहरणार्थ-वरांगचरितका नय आदिका वर्णन यदि सिद्धसेनसे मिलता-जुलता है तो सामायिकादिका वर्णन दशभक्तिसे अर्थात् और कुन्दकुन्दाचार्य पूज्यपादसे मिलता है। इसी प्रकार अनेकान्तका स्वरूप समन्तभद्र सदृश है, तो तत्त्वोंका समस्त विवेचन उमास्वामिसे मिलता है। फलतः इनके आधारपर यदि जटाचार्यके समयकी पूर्व सीमा निश्चित की जाय तो प्रथम शती ( ईसापूर्व ) से लेकर ई० ७वीं शती तक आवेगा । यह निष्कर्ष किसी निश्चित समयकी ओर न ले जा कर संशयको हो बढ़ायेगा। नय विवेचन, अथवा अनेकान्त । निरूपण अथवा व्रतादिके लक्षण अथवा ज्ञानचरित्रकी सफल सहगामिता आदिके निदर्शन; इन सबका मूलाधार केवलीका वह ज्ञान था जो आचार्य परम्परासे चला आ रहा था। तथा जिसके आधारपर आचार्योंने उस समय अपनी-अपनी रचनाएं की थीं, है जब लोगोंके क्षयोपशम क्षीण होने लगे थे । फलतः इसके आधारसे, यदि तत्तत् लेखकों के समयके अन्य साक्षो उपलब्ध हों तो यह For Private & Personal Use Only -e-HI-SHIDARSHeameapests reORIESचयाचारAIRSARELI [११] Jain Education interational www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 726