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बराङ्ग
भूमिका
। गाथासे मिलता है । यद्यपि मा० प्रेमी जी' को 'रविषेणो' पदने द्विविधामें डाला था तथापि डॉ. उपाध्येने 'जेहि 'ते' 'कइणो'२
पदोंके आधारपर यह निर्विवाद सिद्ध कर दिया है कि उद्योतनसूरिने वरांगचरित तथा पद्मचरितके निर्माताओं जड़ियरविषेणका निर्देश किया है।
४-जडिय जटिलका भ्रान्त पाठ है यह धवलकृत हरिवंश' ( ल ११वीं शती ) के # मुणि महसेणु सुलोयणु जेण पउमचरिउ मुणि रविसेणेण। जिणसेणेण हरिवंसु पबित्तु जडिलमुणिणा वरंगचरित्तु ॥ P उद्धरणसे स्पष्ट हो जाता है। अर्थात् स्पष्टरूपसे धवलाचार्य सुलोचनाचरितके निर्माता मुनि महासेन, पद्मचरितके रचयिता आ० रविषेण, हरिवंशकार आचार्य जिनसेन तथा वरांगचरितकार श्री जटिलमुनिको स्मरण करते हैं।
इनके अतिरिक्त कतिपय ग्रन्थोंमें वरांगचरितके उद्धरण भी मिलते हैं। गोम्मटेश प्रतिष्ठापक मंत्रिवर चामुण्डरायने अपने त्रिष्ठि-शलाका-पुरुष-चरित में (९७८ ई०) कथा अंगोंका विवेचन करते हुए श्रोताके भेदोंको बतानेके लिए वरांगचरितके प्रथम अध्यायका १५वाँ श्लोक ज्योंका ज्यों उद्धत किया है । इस निर्देशकी महत्ता तो इसमें है कि उक्त श्लोकके पहिले चामुण्डरायने “जटासिंहनद्याचार्यर वृत्तं" भी लिखा है। दशमी शतीका यह निर्देश कुवलयमाला तथा हरिवंशपुराणके निर्देशोंका पुष्ट पोषक है । सोमदेवोचार्य द्वारा भी वरांगचरितके
"क्षुद्रमत्स्यः किलैकस्तु स्वयंभुरमणोदधौ । महामत्स्यस्य कर्णस्थः स्मृतिदोषावधो गतः ॥" को उद्धृत करना भी प्रमाणित करता है कि बरांगचरित दशमी शतीमें हो पर्याप्त ख्याति तथा प्रतिष्ठा पा सका था।
मर्यादा-मंत्री चामुण्डराय द्वारा 'जटासिंहनन्दि' नामसे वरांगचरितकारका निर्देश हमारा आदिपुराणके उस पार्श्वलेख4 की ओर ले जाता है जिसमें जटाचार्यका नाम 'सिहनन्दिन' लिखा है। इन उद्धारणोंके सहारे ऐसी कल्पना आती है कि वरांग
चरितके प्रथम सर्गमें आया 'राजसिंह' शब्द संभवतः आचार्यके नामका आंशिक संकेत करता है क्योंकि प्रादेशिक भाषाके ग्रन्थकारोंमें भी 'जटासिहनन्दि' नामसे वरांगचरितके रचयिताका स्मरण करनेवालोंका बहुमत है
१--कन्नड़ भाषाके धुरन्धर कवि पम्पने अपने आदिपुराण ( ९४१ ई० ) के आरम्भमें बड़े सम्मान और श्रद्धाके साथ । 'जटाचार्य' नामसे वरांगचरितकारका स्मरण दिया।
१. पद्मचरितकी भूमिका, पृ० ३ । २. वरांगचरितकी अग्रेजी भूमिका, पृ० १० ( मा० च० ग्र०, ग्र० ४०)। ३. सी० पी तथा वरारके संस्कृत प्राकृत मनुस्क्रिप्टका कैटलोग, पृ०७६४ ।
४. कर्नाटक साहित्य परिषद् द्वारा १९२८ में प्रकाशित । ।। ५. यह वाक्य त्रिषष्ठि-शालाकाचरितकी समस्त हस्तलिखित प्रतियोंमें नहीं मिलता तथापि इसकी स्थिति निर्विवाद है क्योंकि १४२७
(शक ) में की गयी इसकी ताड़पत्रीय प्रतिमें भी यह वाक्य है । ६. प्रथम सर्ग, श्लोक १२ ( मैसूर संस्करण १९००)।
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