Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 10
________________ बराङ्ग चरितम् लेनेका निर्णय करते हैं। कुटुम्बोजन उन्हें रोकते हैं, किन्तु वे अपने धर्मपिता सेठ सागरबुद्धि तथा अन्य स्वजनों को समझा लेते हैं । कुमार सुगात्रको राजसिंहासनपर बैठाकर अन्तिम उपदेश देते हैं और श्री वरदत्त केवलीसे दैगम्बरी दीक्षा ले लेते हैं। रानियाँ भी धार्मिक दीक्षा लेती हैं । वरदत्त केवली मुनिधर्मका उपदेश देते हैं। इसके बाद राजा तथा रानियाँ, घोर तप करके अपने अन्तरंग और बहिरंग शत्रुओंको जीतते हैं । अन्तमें वरांगराज शुक्लध्यान करके सद्गतिको प्राप्त करते हैं । इस कथा वस्तुसे भी स्पष्ट है - रस, पात्र तथा चतुर्वर्गं साधक होनेके कारण यह धर्मं कथा उच्चकोटिका संस्कृत महाकाव्य हो जाती है । ग्रन्थकार — अब तक प्रकाश में आयी दोनों हस्तलिखित प्रतियों में कहीं भी ग्रन्थकारका किसी प्रकारसे निर्देश नहीं मिलता है । अर्थात् ग्रन्थकार के विषयमें अन्तरंग साक्षीका सर्वथा अभाव है। इस महाकाव्यको हमारे सामनेलाने वाले सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ० उपाध्येने भी सर्गान्त में आये विशाल कीर्ति, तथा राजसिंह शब्दोंके ऊपरसे लेखकका अनुमान लगाने के प्रलोभनको ग्राह्य नहीं समझा है ।" आपाततः अन्तरंग साक्षियोंके अभाव में बाह्य साक्षियोंकी ही शोध एकमात्र गति रह जाती है । बाह्य साक्षी भी प्रधानतया दो प्रकारके हैं प्रथम साहित्यिक निर्देश, द्वितीय शिखालेख । साहित्यिक निर्देश संक्षेप में निम्न प्रकार हैं १-आचार्य जिनसेनने ( ल० ७८३ ई० ) अपने हरिवंशपुराणके प्रारम्भमें पूर्ववर्ती कवियों तथा काव्योंका सारण करते हुए वरांगचरित के लिए लिखा है “सर्वगुण सम्पन्न नायिकाके समान अर्थं गम्भीर वरांगचरित अपने समस्त लक्षणों ( अंगोपांगों ) के द्वारा अपने प्रति किसके मनमें गाढ़ अनुरागको उत्पन्न नहीं करेगा? अर्थात् वरांगचरित सबके लिए मनोहारी है । किन्तु इतना सम्मानपूर्ण होकर भी यह निर्देश केवल ग्रन्थका परिचय देता है । उसके निर्माता के विषयमें मौन है। २ - आदिपुराणकार आचार्य जिनसेन द्वितीयने ( ८३८ ई० ) "काव्यकी कल्पनामें तल्लीन जिस आचार्य के जटा हमें अर्थं समझाते हुएसे लहराते हैं वह जटाचार्यं हमारी रक्षा करें" 3 कहकर किन्हीं जटाचार्यको नमस्कार किया है। इतना ही नहीं, कितनी ही बातोंमें वरांगचरित के मन्तव्योंको अपने पद्योंमें दिया है। किन्तु आदिपुराण जटाचार्यकी कृतिके विषय में मौन हैं। ३ --हरिवंशपुराणके वरांगचरित आदिपुराणके जटाचार्यमें क्या सम्बन्ध था, इस समस्याका निकार श्री उद्योतनसूरि ( ७७८ ई० ) की कुवलयमाला की । "जेहि कए रमणिज्जे वरंग - पउमाण चरिय वित्थारे । कह व ण सलाहणिज्जे ते कइणो जडिय-रविषेणो ॥ " १. वरांगचरितकी अंग्रेजी भूमिका, पृ० ८ ( मा० ग्र० मा० मुम्बई, ग्र० ४० ) । २. हरिवंशपुराण, प्र० अ० श्लोक ३५ । ३. "काव्यानुचिन्तने यस्य जटाः प्रचलवृत्तयः । अर्थान्स्मानुवदन्तीव जटाचार्यः स नोऽवतात् । - आदिपुराण, सर्ग १, श्लोक ५० । ४. कॅटलोग ऑफ मैनुस्क्रिप्ट जैसलमेर भण्डार, गायकवाड़ सीरीज वो० १३, पृ० ४२ । For Private & Personal Use Only Jain Education International 2278 भूमिका [७] www.jainelibrary.org

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