Book Title: Vajradant Chakravarti Barahmasa Author(s): Nainsukh Yati, Kundalata Jain, Abha Jain Publisher: Kundalata and Abha Jain View full book textPage 9
________________ ऐसा मौका मिलने पर भी तत्त्वज्ञान न हुआ, मोक्षमार्ग न बना तो अनन्त धिक्कार हैं। सम्यगदर्शन प्राप्त करना, आत्मदर्शन करना, अपने को देखना कोई मुश्किल काम नहीं हैं पर भीतर में बहुत ही मनन-चिंतन करके तत्त्व निर्णय करने की व पात्रता बनाने की दरकार हैं। तत्त्व प्राप्ति का दृढ़ निश्चय हो और भीतर में संसार-शरीर-भोगों का अभिप्राय न रहे। अन्तरंग में से अंहबुद्धि मर जानी चाहिए। परद्रव्यों में से अपनापना बिल्कुल छूट जाना चाहिए। हमारे साथ जितना भी जीव-अजीव समागम है वह सब कर्म का ही हैं, कर्म की जब मर्जी होगी ले लेगा, उसमें मेरा कुछ भी तो नहीं हैं, उससे मेरा कुछ भी तो सम्बन्ध नहीं है। मेरा तो एक अनन्त गुणात्मक आत्मा ही अपना हैं, उसी से मेरा सम्बन्ध है और मेरी आत्मा में ही सुख हैं। बाहर में सुखबुद्धि एकदम ही उड़ जानी चाहिए। इस घर संसार में कहीं भी सुख हैं नहीं, यह सिर्फ कहने की, पढ़ने की, सुनने की बात नहीं हैं, एकदम सत्य बात हैं। अज्ञानता से हमने झूठे सुख को सुख मान लिया हैं। अपनी आत्मा के उस अतुल, असीम, अनमोल आनन्द को अपनाकर तो जीव निहाल हो जाता हैं और भूल जाता हैं उन सांसारिक सुखों को जिन्हें आज सुख माने बैठा हैं। ___ तत्त्वज्ञान के लिए कर्ताबुद्धि का टूटना भी आवश्यक हैं। कोई भी परद्रव्य मेरा भला-बुरा या मुझे सुखी-दुःखी नहीं कर सकता और में किसी का भला-बुरा या उसे सुखी-दु:खी नहीं कर सकता-ऐसा दृढ़ निर्णय होना चाहिए। में तो जानने वाला ही हूँ, कुछ भी करने-धरने वाला हूँ, ही नहीं। मैं पर के भले-बुरे के या मारने-जिलाने के भाव ही कर सकता हूँ और उन भावों से कर्म का बंधन होता हैं परंतु पर का भला-बुरा या उसे मार-जिला नहीं सकता। कर्ताबुद्धि तोड़ने के लिए पुण्य-पाप का VAVAPage Navigation
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