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जैनधर्म और तत्त्व को समझने की और प्राप्त करने की सद्बुद्धि मिली हैं और शरीर भी अभी निरोग है तो इतना सुन्दर अवसर हाथ से नहीं खोना चाहिए और तत्त्व प्राप्ति भीं तो कुछ भी मुश्किल नहीं, बिल्कुल ही आसान है।
हॅ भगवन् ! यॆ सारा संसार बहुत ही दु:खी है, इसका कल्याण कैसे हो ! न जाने ये सारी दुनिया कहाँ दुःख में सुख मान रही है और पागलों की तरह कहाँ फँस रही है। सुख को बाहर ढूंढती फिर रही हैं, इन्हें क्यों नहीं दिखाई देता कि भोगों में, पर पदार्थों में सुख हैं ही नहीं। मुझे तो बड़ा ही भारी अफसोस आता है कि इनके अपने ही अन्दर आनन्द भरा है, आनन्द का समुद्र लहरा रहा है पर इन बेचारों को नहीं मालूम।
मेरे तो रोम-रोम में जीव मात्र के कल्याण की भावना समाई है। हे भगवन् ! सबको सद्बुद्धि दो। यही हार्दिक भावना निरन्तर रहती हैं कि यह जो तत्त्व मुझे मिला है, यह जो सुख और आनन्द मिला है वह सब ही को बाँट दूँ, सबको सिखा दूँ, कोई भी जीव बाकी न रह जाए, सबको ही इस आनन्द व सुख की प्राप्ति हो, जीव मात्र ही इस मार्ग पर लग जाए और सुखी हो जाए, सबका मोक्षमार्ग बने, सब शीघ्र-अति शीघ्र संसार बंधनों से पार हो जाएं और सिद्धों के वंश में जा मिलें ।
यह सब भाई जी श्री बाबूलाल जी, कलकत्तॆ वालों की ही देन हैं, उन्होंने हमें वर्तमान में ही सुखी कर दिया। उनका मेरे ऊपर परम-परम उपकार हैं जो में जन्म-जन्म में भी भुला या चुका नहीं सकती।
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प्रेमलता जैन