Book Title: Vajradant Chakravarti Barahmasa
Author(s): Nainsukh Yati, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Kundalata and Abha Jain

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Page 19
________________ लेकर फिर चाहे जिसको भी दे दो।' फिर छह मास के एक पोते का अभिषेक करके उसे राजा बनाकर पिता के साथ सब पुत्रों ने जगत के जंजाल से निकलकर वन के मार्ग को ग्रहण किया और केवल वे एक हजार बड़भागी पुत्र ही नहीं वरन् उनके साथ बत्तीस हजार में से तीस हजार मुकुटबद्ध राजा और छियानवे हजार में से साठ हजार रानियाँ भी संसार को त्याग कर चल दीं। सबने ही भोगों की ममता को छोड़ दिया और समता भाव धारण कर तीनों लोकों के जीवों से विनती की कि 'हमने तो अहँत, सिद्ध और साधु की शरण ग्रहण करके सबसे वैर छोड़ दिया है, आप सब भी हमसे वैर को छोड़कर हमको क्षमा करना, आज हम जैनेश्वरी दिगम्बर दीक्षा ग्रहण कर रहे हैं और सर्वज्ञ भगवान के मत में हमने अपना मन लगा लिया है '-ऐसा कहकर वज्रदन्त चक्रवर्ती सहित उन इक्यानवें हजार जीवों ने पिहितास्रव गुरु के समीप केशों का लोंच करके जैन दीक्षा ग्रहण की और निर्विकल्प होकर ध्यान में द ढ़ता धारण की। अन्तिम ज्येष्ठ मास के ग्रीष्म काल में पहितास्रव गुरु ने आतापन योग धारण करके शुक्ल ध्यान के द्वारा तीनों लोकों को प्रकाशित करने के लिए सूर्य के समान केवलज्ञान को प्रकट किया और वे वज्रदन्त मुनीश भी स्व-पर कल्याण करके आवागमन को तिलांजलि देकर कालान्तर में शिवपुर (मोक्ष) गए और निरंजन व निराकार हो गए। अन्य भी जिनदीक्षा ग्रहण करने वाले सब ही जीवों की शुभ गति हुई। जो भी जीव जिनेन्द्र भगवान की शरण ग्रहण करते हैं उनके पुरुषार्थ की सिद्धि के उपाय से उत्क ष्ट प्रयोजन मोक्ष की सिद्धि हो जाती है। कविवर नैनानन्द जी कहते हैं कि 'इस बारहमासे को पढ़कर जो कोई जीव उल्लसित चित्त से इसकी भावना भाता है उसके विघ्न नष्ट होकर नित्यप्रति नवीन मंगल होते हैं और वह सुर-नर के सुखों को भोगकर उत्तम मोक्ष को पा लेता है।' वज्रदन्त चक्रवर्ती के व त्तान्त को पूर्ण करते हुए कवि नैनानन्द के नयनों में आनन्द भर रहा है और अन्त में अत्यंत लघुता प्रदर्शित करते हुए उन्होंने अपनी बालबुद्धि दर्शाकर ज्ञानी जीवों से इस बारहमासे को शुद्ध करने की और अपने दोषों पर रोष न करने की प्रार्थना की है। * * * १0

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