Book Title: Vajradant Chakravarti Barahmasa
Author(s): Nainsukh Yati, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Kundalata and Abha Jain

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Page 50
________________ एक बार इस प्रकार संसार का स्वरूप विचारते हुए) उसने आत्म हित की अत्यंत दृढ़ता की कि 'यह संसार चतुर्गतिमय है। इसके चक्र से निकलना बहुत कठिन है।' पश्वीकाय मनुष्य नारक अपकाय तेजस्काय वायुकाय तयर वनस्पतिकाय पचान्द्रय चतरिटिश ये संसार महावन भीतर भ्रमते ओर ना आवे......। जामन मरण जरा दौं दाझे, जीव महा दुःख पावे।। ४६

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