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परन्तु संसार-शरीर-भोगों से कंपायमान चित्त वालें, उपसर्ग-परिषहो में मन की द ढ़ता से युक्त, आत्म-अनुभव की महिमा से ओतप्रोत, मुनि दीक्षा धारण करने की धन्यता के भाव सहित और बंध के अभाव के उद्यम के प्रमोद वाले उन पुत्रों का हर मास में यही उत्तर आया कि 'जो आपकी समझ है वही हमारी भी समझ है, जो भौंरा कर के कंगनवत् आपको संसार की अनित्यता दिखा गया है वही हमें भी दिखा गया है, हमें आप राज्य-पद क्यो दे रहे हैं ?'
पिता द्वारा वनवास के दुःखों का भय दिये जाने पर तो पुत्रों ने संसार की चार गति और चौरासी लाख योनियों के और उनमें भी नरकों व तिर्यंचों के अनन्तानन्त दुःखों की याद दिला दी कि 'परवश इतने दुःख अनन्त बार सहे उनके सामने हे पिता ! ये दुःख क्या दुःख हैं और उनके द्वारा अपनी इतनी विशाल सम्पत्ति को अंगीकार करके भोगने का लोभ प्रदान करने पर पुत्रों ने भोगों को अनन्त धिक्कारता दी कि 'हे क पानिधान ! आपके प्रसाद से अमर्यादित भोग हमने भोगे परन्तु अब हमारे भीतर भोगों की चाह मात्र शेष नहीं है। ये भोग ही वे वस्तु हैं जिनके चक्र में फंसकर यह जीव मुक्ति की अनुपम राह को भूल जाता है।' चैत मास के दसवें महिने में पहँचने पर पिता ने जब वसन्त ऋतु में कामदेव के द्वारा ज्ञान के परम खजाने को हर लेने पर दुर्गति गमन की बात कही तब पुत्रों ने उसमें भी अपनी द ढ़ता दिखाकर कहा कि 'वसन्त ऋतु में तो हम उस श्मशान भूमि में परिषह सहेंगे जहाँ हरितकाय का अंकुर तक नहीं होता, चारों ओर दिन-रात धूल ही धूल उड़ती है और वहाँ प्रचण्ड भूत-प्रेतों के शब्द सुनकर काम भाग जाता है।'
अब यहाँ पर आकर पिता के वक्तव्य पुत्रों के द्वारा असहनीय हो गये और वे उनसे अरदास कर उठे कि 'हे प्रभु ! अब आगे हमसे कुछ और मत कहना क्योंकि इन संसार-शरीर-भोगों से हमारा मन कांप चुका है, हम ये राज्य-पद किसी भी कीमत पर अंगीकार करने वाले नहीं हैं। ___ग्यारहवाँ वैशाख का मास आने पर कविवर वर्णन करते हैं कि 'पुत्रों की अरदास सुनकर चक्रवर्ती के मन में विश्वास पैदा हो गया कि अब बोलने को कोई स्थान नहीं बचा है , मैं कुछ और कहता हूँ और ये पुत्र कुछ और ही कहे जा रहे हैं।' पुत्रों से वे बोले कि 'अब मैं कुछ और नहीं कहूँगा, तुम इस जगत की रीति का पालन करो और एक बार हमसे तो राज्य