Book Title: Vajradant Chakravarti Barahmasa
Author(s): Nainsukh Yati, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Kundalata and Abha Jain

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Page 32
________________ पिता चैत लता मदनोदय तिनकी इष्ट गन्ध के चैत-मास दसवाँ चौपाई होय । ऋतु बसन्त में फूले सोय । जोर । जागे काम महाबल फोर ।। I अर्थः- चैत के महिने में वसन्त ऋतु में वक्षों की लताएँ जब फूलती हैं तो उनकी इष्ट गंध के जोर से मदन का उदय होता है और अपने महान बल को स्फुरायमान करके काम जाग जाता है। गीता छंद फोर बल को काम जागे, लेय मनपुर छीन ही । फिर ज्ञान परम निधान हरि के, करे तेरा तीन ही । इत के न उत के तब रहे, गए कुगति दोऊ कर झार के । कुल आपने की रीति चालो, राजनीति विचार के ।। अर्थः- जीव के बल को फोड़कर अर्थात् नष्ट-भ्रष्ट करके काम जागता है, उसके मनपुर (मन रूपी नगर ) को छीनकर उसमें बस जाता है और फिर उसके ज्ञान रूपी परम खजाने को हरके उसका विनाश कर देता है और तब इधर के और उधर के कहीं के भी नहीं रहकर दोनों हाथ झाड़कर कुगति में चले जाते हैं इसलिए तुम राजनीति के अनुसार राज्य करके अपने कुल की रीति का अनुसरण करो । चौपाई ऋतु बसन्त वन में नहिं रहें । भूमि मशान' परीषह सहें । जहाँ नहिं हरितकाय अंकूर । उड़त निरन्तर अहनिशि धूर ।। अर्थः- वसन्त ऋतु में हम वन में नहीं रहेंगे, हम तो उस श्मशान भूमि में परिषह सहेंगे जहां हरितकाय का अंकुर तक नहीं होता और दिन-रात निरन्तर धूल उड़ती है । गीता छंद उड़े वन की धूरि निशिदिन, लगे कांकर आय के । सुन शब्द प्रेत प्रचण्ड के वो काम जाय पलाय के । मत कहो अब कछु और प्रभु, भव भोग से मन कंपिया । तुम समझ सोई समझ हमरी, हमें न पपद क्यों दिया ।। अर्थः- जब वन की धूल उड़ती है और निशदिन कंकर आकर शरीर पर लगते हैं तो प्रचण्ड प्रेतों के शब्द सुनकर काम भाग जाता है । हे प्रभो ! अब कुछ और मत कहो, संसार के भोगों से हमारा मन कांप चुका है, जो आपकी समझ है सो ही हमारी भी समझ है, हमें आप राज्यपद क्यो दे रहे हैं ! अर्थः- १. श्मशान भूमि । २. दिन-रात । ३१

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