Book Title: Vajradant Chakravarti Barahmasa
Author(s): Nainsukh Yati, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Kundalata and Abha Jain

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Page 36
________________ बा मा सा अन्तिम दोहा नित-नित नव मंगल बढ़ें, पढ़ें जो यह सुर नर के सुख भोगकर, पावैं मोक्ष अर्थः- जो जीव यह गुणमाल पढ़ते हैं उनके नित्य प्रति ही नवीन मंगल बढ़ते हैं और देव व मनुष्य पर्याय के सुख भोगकर वे उत्तम मोक्ष को पा लेते हैं | रचि के पवित्र नैन अन्तिम सवैया दो हजार मांहि तें तिहत्तर घटाय अब, विक्रम को संवत् विचार के अगहन असित े त्रयोदशी म गांक वार, आनन्द गुणमाल । रसाल' ।। दोष पे न रोष करो अर्थः- १.सुन्दर, उत्तम । २. क ष्ण। ३. सोमवार । अर्द्ध निशा मांहि याहि पूरण करत हूँ । इति श्री वज्रदन्त चक्रवर्त्ति को व तन्त, भरत हूँ। रचि के पवित्र नैन आनन्द भरत हूँ। ज्ञानवन्त करो शुद्ध जान मेरी बाल बुद्ध, दोष पे न रोष करो पांयन परत हूँ ।। धरत हूँ। अर्थः- विक्रम संवत् १६२७ के अगहन मास के कष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन वार सोमवार की आधी रात्रि में इसे पूर्ण कर रहा हूँ। इस वज्रदन्त चक्रवर्ती के पवित्र व त्तान्त को रचकर मेरे नेत्रों में आनन्द भर रहा है, ज्ञानीजन मेरी बालबुद्धि जानकर इसे शुद्ध करें और इसमें होने वाले दोषों पर रोष न करें, मैं उनके पैरों में पड़ता हूँ। ३५ पांयन परत हूँ। इति श्री वज्रदन्त चक्रवर्ती का बारहमासा सम्पूर्ण हुआ ।। स W मा τ त

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