Book Title: Vajradant Chakravarti Barahmasa
Author(s): Nainsukh Yati, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Kundalata and Abha Jain

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ ARNE VDC D ARDOTMD पौष-मास सातवाँ प्र चौपाई पौष अर्थ अरु लेहु गयंद' | चौरासी लख लख सुखकन्द। कोड़ि अठारह घोड़ा लेहु। लाख कोड़ि हल चलत गिनेहु।। अर्थः- पौष का महिना है। हे पुत्रों ! इन धनादि को सुख का पिण्ड जानकर ये सारा धन, चौरासी लाख हाथी तथा अठारह करोड़ घोड़े ले लो और ये एक लाख करोड़ हल चल रहे हैं इनको गिनकर ग्रहण कर लो। गीता छंद लेहु हल लख कोड़ि षट् खण्ड, भूमि अरु नव निधि बड़ी। लो देश कोष विभूति हमरी, राशि रतनन की पड़ी। धर देहुँ सिर पर छत्र तुमरे, नगर घोष उचारि के। कुल आपने की रीति चालो, राजनीति विचार के।। अर्थः- इन एक लाख करोड़ हलों को लेकर ये छह खण्ड की भूमि, बड़ी नौ निधियां, सारे देश-कोष की विभूति और रत्नों की सारी राशियों को ग्रहण करो, नगर में घोषणा करवाके मैं तुम्हारे सिर पर छत्र रख देता हूँ , तुम राजनीति के अनुसार राज्य करके अपने कुल की रीति का अनुसरण करो। चौपाई १२अहो क पानिधि ! तुम परसाद । भोगे भोग सु बेमरयाद। अब न भोग की हम कू चाह। भोगन में भूले शिव राह।। अर्थः- अहो क पानिधि ! आपके प्रसाद से हमने अमर्यादित भोग भोगे हैं परन्तु अब हमको भोगों की चाह नहीं है। इन भोगों की आसक्ति के कारण ही हम अनादि से मुक्ति की राह भूले हुए थे। गीता छंद राह भूले मुक्ति की, बहु बार सुर गति संचरे। जहाँ कल्पव क्ष सुगन्ध सुन्दर, अप्सरा मन को हरे। जो उदधि पी नहिं भया तिरपत, ओस पी कै दिन जिया। तुमरी समझ सोई समझ हमरी, हमें न पपद क्यों दिया।। अर्थः- मुक्ति की राह भूलकर हम बहुत बार स्वर्गों में भी गए जहाँ सुगन्धित कल्पव क्ष थे और सुन्दर अप्सराएँ मन को हरती थीं सो जो समुद्र प्रमाण जल पीकर भी त प्त नहीं हुआ वह ओस पीकर कितने दिन जीवित । रह सकेगा अतः जो आपकी समझ है सो ही हमारी भी समझ है हमें । आप राज्यपद क्यों दे रहे हैं ! SED V Lama KASAN अर्थ:- १. हाथी। २.क पा के खजाने। ३.समुद्र। OHAAN

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116