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बारहमासे का सार
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यति नैनसुखदास जी द्वारा विक्रम संवत् १६२७ में विरचित वज्रदंत चक्रवर्ती का यह अत्यंन्त ही सुन्दर वैराग्य रस से सराबोर एवं भावनापूर्ण बारहमासा है। कवि ने बारह भावना, राजुल बारहमासा एवं अनेक भजन आदि विविध रचनाओं का निर्माण करके जैन साहित्य को सम द्ध किया है। बारहमासा प्रारम्भ करते हुए उन्होंने बहुत सुन्दर रूपक खींचा है कि इन्द्र के समान भोगों के धनी वज्रदन्त चक्रवर्ती बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं के बीच में अपनी सभा लगाकर बैठे हुए थे, उस समय माली के द्वारा लाए हुए कमल में म त भौंरे को देखकर भव्य होनहार युक्त उनके भीतर वैराग्य धारा उल्लसित हुई कि 'अहो ! मात्र एक इंद्रिय के वशीभूत इस भौंरे की यह दुर्दशा हुई तो मैं तो विषय-कषायों के जाल में पड़ा हूँ , यदि अब भी अपना हित नहीं करूँगा तो न जाने कौन सी गति में जाकर पड़ जाऊँगा।' उनके चित्त में आत्म-कल्याण की वांछा ने जोर पकड़ा और उन्होंने जैन दीक्षा अंगीकार करने की मन में ठान ली। ___ अपने एक हजार पुत्रों को बुलाकर उन्हें अपने वैराग्य भाव से अवगत कराके चक्रवर्ती राज्य-भार को संभलवाने की चेष्टा में रत हुए परन्तु संसार-शरीर-भोगों से उदासीनता युक्त वे सारे पुत्र आखिर वैराग्यवन्त चक्रवर्ती के ही पुत्र ठहरे, पिता के द्वारा उपभुक्त राज्य-लक्ष्मी रूपी वमन को वे कैसे अंगीकार कर सकते थे सो सबने ही एक स्वर से उसका निषेध किया कि 'जगत के जिस जंजाल को आप बुरा जानकर छोड़ रहे हैं हमें उसमें ही फँसा रहे हैं, हम कदापि यह स्वीकार न करेंगे और आपके ही साथ मुनिव्रत अंगीकार कर पाँच महाव्रतों को धारण करेंगे।'
अब यहाँ से बारह मास प्रारम्भ होते हैं। आसाढ़ से लेकर दस मास पर्यन्त पिता-पुत्र का संवाद है। आसाढ़ के मास से पिता ने पुत्रों को जो समझाना प्रारम्भ किया कि चैत का महिना आ गया पर पत्रों की निरन्तर जिनदीक्षा को अंगीकार कर लेने की द ढ़ता ही सामने आई। निर्ग्रन्थ मार्ग के उपसर्ग एवं परिषहों आदि के अनेक कष्ट, मुनिव्रत व संयम पालन की कठिनाईयाँ, भोगों के त्याग की दुष्करता, विषय-कषाय व काम भाव की जीव में प्रचुरता, भाव की स्थिरता का अभाव एवं तप धारण की दुर्द्धरता आदि-आदि बताकर पिता ने हर मास में पुत्रों को राजनीति के अनुसार राज्य-कार्य करके अपने कुल की ही रीति पर चलने की ओर प्रेरित किया