Book Title: Vajradant Chakravarti Barahmasa
Author(s): Nainsukh Yati, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Kundalata and Abha Jain

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Page 11
________________ भी लालसा नहीं। नहीं चाहिए धन-वैभव, नहीं चाहिए मान-सम्मान, नहीं चाहिए शरीर, नहीं चाहिए मकानादि-इनको रहना हो रहें, न रहना हो न रहें, मुझे तो सिर्फ आत्मा ही चाहिए। मात्र आत्मा के ही प्रति आदर भाव और उसी की ही महिमा होनी चाहिए। आत्मा के प्रदेश-प्रदेश में बस आत्म-अनुभवन की ही तीव्र भावना हो, एक पागलपना सा ही हो जाए, हरदम आत्मदर्शन की ही इंतजार हो। में आत्मा अनन्त गुणों का भण्डार हूँ, अपने आनन्द और सुख से भरपूर हूँ, मेरे में कुछ भी तो कमी नहीं। मुझे कुछ भी तो नहीं चाहिए। फिर में इन संसारी तुच्छ वस्तुओं पर क्यों भरमाता हूँ, क्यों इनकी इच्छ में तड़फता रहता हूँ, क्यों नहीं अपने सुख में निश्चल होता! बाहरी पदार्थों से तीव्र अरुचि बने, फिर जो आत्मशक्ति इन पर पदार्थों में जा रही थी वही स्वभाव के अनुभव के लिए तड़फने लगेगी। अब बस उपयोग को स्थिर करने का प्रयत्न करना है। हर समय आत्मा की ओर का झुकाव, उसी की याद, उसी का चितवन रहे, चारों ओर से शक्ति को समेटकर स्वभाव की ओर झुकावे, बारम्बार ये ही पुरुषार्थ करें। प्रश्न-पुरुषार्थ तो कर रहे हैं पर सम्यग्दर्शन नहीं हो रहा? उत्तर-जितना पुरुषार्थ, जितनी रुचि, जितनी लगन चाहिए उतनी अभी नहीं लगी, जितनी शक्ति स्वरूप की ओर झुकनी चाहिए उतनी अभी भी नहीं झुकी, जरूर कहीं दूसरी जगह रुकी हैं, अटकी हैं इसलिए ही नहीं हो रहा है। इसकी खोज यदि सच्ची है तो कभी भी निष्फल नहीं जाती, इसका पुरुषार्थ कभी भी बेकार नहीं जाता, आत्मप्रभु को दर्शन देने ही पड़ेंगे।

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