Book Title: Vajradant Chakravarti Barahmasa
Author(s): Nainsukh Yati, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Kundalata and Abha Jain

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Page 12
________________ तीव्र लगन लगाकर एक बार तो संसार की जड़ काट ही द, एकदम निर्भय, निःशंक व बेधड़क होकर मिथ्यात्व रूपी छींके को काट दो । उपयोग में स्थिरता का अभ्यास करते-करते शक्ति सिमटने लगेगी, शांति बढ़ती चली आएगी, शास्त्र पढ़ना भी मुश्किल हो जाएगा और किसी दिन अचानक ही उपयोग गहरे में जाकर अपने में ही डूब जाएगा, ऐसा अनुभव होगा कि में तो एक स्थिर पदार्थ हूँ, आनन्द का फव्वारा फूट निकलेगा, अपना सुख गुण अनुभव में आने लगेगा, अनन्त आनन्द में डुबकी लग जाएगी, आत्मा के सारे प्रदेशों में आनन्द ही आनन्द समा जाएगा, सिद्धों के असीम और अनन्त आनन्द का नमूना मिल जाएगा, संसार की आकुलता व झुलसन सब ही समाप्त ह जाएगी। श्रद्धा हुंकारा भरेगी कि यही मैं हूँ, ज्ञान कहेगा कि तेरा कार्य हो गया है, सारा जीवन ही बदला हुआ नजर आएगा। शरीर कहाँ हैं नहीं मालूम, संसार कहाँ हैं नहीं मालूम, में हूँ बस, और सिर्फ एक आनन्द का पिंड हूँ, यही मेरा अस्तित्व है, मेरी मेहनत सफल हो गई है। शान्ति का, हर्ष का पारावार नहीं रहेगा, गद्गद् गर्ते लगने लगेंगे, बारम्बार भीतर ही झुकाव बनने लगेगा, बस फिर क्या हैं निहाल हो जाओगे, फिर इन विषय भोगों में रस नहीं रह जाएगा, मेरा बाहर में है ही क्या, सब कुछ ही तो मेरा मेरी आत्मा में ही हैं, शरीर पर जब उपयोग जाएगा तो वह बिल्कुल काठ का पुतला अलग सा दिखाई देगा। जैसे घड़ा और उसमें भरा हुआ पानी - इस तरह शरीर और आत्मा दो ही दिखाई देंगे, देह से भिन्न वस्त्र की तरह शरीर आत्मा से भिन्न अलग ही नजर आएगा। और जब शरीर से ही मेरा कुछ भी नाता नहीं दिखाई दे रहा तो घर और घरवालों से क्या नाता रहा ! दुनिया पहले कुछ और दिखती १०

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