Book Title: Vajradant Chakravarti Barahmasa
Author(s): Nainsukh Yati, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Kundalata and Abha Jain

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Page 8
________________ तेरा तुझको अर्पित (हे भव्यों ! संसार बंधन तोड़कर धर्म मार्ग पर चलो। आत्मज्ञान प्राप्त किए बिना तो धर्म की शुरुआत ही नहीं होती और इस भयंकर संसार की कट्टी हो ही नहीं सकती। अरे भाई ! संसार में तो दु:ख ही दु:ख हैं, सुख कहीं भी हैं ही नहीं। यह संसार महा दु:खों का सागर है, इसमें दुःख तो क्यू लगाए खड़े हैं, न जाने कब कौन सा कर्म उदय में आ जाए और सिर पर दुःखों का पहाड़ टूट जाए और सुख का भंडार मेरी आत्मा हैं, अपनी आत्मा में इतना आनन्द हैं, इतनी शान्ति हैं, इतनी निराकुलता हैं कि बताना असंभव हैं। कहाँ संसार के चक्रव्यूह में फँसे हो और अपने पैरों पर आप ही कुल्हाड़ी मार रहे हो। यह मनुष्य भव भागा जा रहा हैं फिर हाथ नहीं आएगा। सम्यक्त्व प्राप्ति के सारे ही तो साधन मिले हैं, यदि

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