Book Title: Tulsi Prajna 2006 04 Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 6
________________ जैन तत्त्वमीमांसा की विकासयात्रा ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में - प्रो. सागरमल जैन जैन धर्म मूलत: आचार प्रधान है, उसमें तत्त्वमीमांसीय अवधारणाओं का विकास भी आचारमीमांसा के परिप्रेक्ष्य में ही हुआ है। उसके तत्त्वमीमांसीय अवधारणाओं में मुख्यतः पंचास्तिकाय, षद्रव्य, षट्जीवनिकाय और सप्त तत्त्वों की अवधारणा प्रमुख है। परम्परा की दृष्टि से तो ये सभी अवधारणायें अपने पूर्ण रूप से सर्वज्ञ प्रणीत और सार्वकालिक है, किन्तु साहित्यिक साक्ष्यों की दृष्टि से विद्वानों ने कालचक्र में इनका विकास माना है। प्रस्तुत आलेख में कालचक्र में निर्मित ग्रन्थों के आधार पर इनकी विकासयात्रा को चित्रित किया गया है। अस्तिकाय की अवधारणा विश्व के मूलभूत घटकों के रूप में पंचास्तिकायों की अवधारणा जैनदर्शन की अपनी मौलिक विचारणा है, पंचास्तिकायों का उल्लेख आचारांग में अनुपलब्ध है, किन्तु ऋषिभाषित (ई.पू. चतुर्थ शती) के पार्श्व अध्ययन में पार्श्व की मान्यताओं के रूप में पंचास्तिकाय का वर्णन है। इससे फलित होता है कि यह अवधारणा कम से कम पार्श्वकालीन (ई.पू. आठवीं शती) तो है ही। महावीर की परम्परा में भगवतीसूत्र में सर्वप्रथम हमें इसका उल्लेख मिलता है। जैनदर्शन में अस्तिकाय का तात्पर्य विस्तारयुक्त अस्तित्ववान द्रव्य से है। जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल को अनेक द्रव्य माना गया है। ई. सन् की तीसरी शती से दसवीं शती के मध्य इस अवधारणा में कोई विशेष परिवर्तन नहीं देखा जाता है, मात्र षड्द्रव्यों की अवधारणा के विकास के साथ-साथ काल को अनस्तिकाय द्रव्य के रूप में स्वीकार किया गया है। इतना स्पष्ट है कि ई. सन् तुलसी प्रज्ञा अप्रेल- जून, 2006 - - 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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